Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 262
________________ 04 श्री श्रावकाचार जी गाथा-४३४,४३५ Oo अनुमति नहीं देता (मिथ्या रागादि देसन) मिथ्यात्व, राग-द्वेष सम्बंधी उपदेश भी उद्दिस्टं उत्कृष्ट भावेन, दर्सनं न्यान संजुतं । नहीं देता (अहिंसा भाव सुद्धस्य) अहिंसा और भावों की शुद्धि का ध्यान रखता है चरनं सुद्धभावस्य, उहिस्टं आहार सुद्धये ॥ ४३४ ॥ (अनुमतं न चिंतए) अनुमति देने का चिंतवन भी नहीं करता वह अनुमति त्याग प्रतिमाधारी है। अंतराय मनं कृत्वा , वचनं काय उच्यते। विशेषार्थ- दसवीं प्रतिमा अनुमति त्याग है। इस श्रेणी में श्रावक,धर्म सम्बंधी मन सुद्धं वच सुद्धं च, उहिस्टं आहार सुद्धये ॥ ४३५॥ चर्चा के सिवाय और कोई लौकिक चर्चा नहीं करता है। कोई लौकिक सम्मति गृहस्थ अन्वयार्थ- (उद्दिस्टं उत्कृष्ट भावेन) उद्देश्य, श्रेष्ठ भावों के साथ (दर्सनंन्यान के क्षणभंगुर मिथ्या कार्य सम्बंधी, व्यापार सम्बंधी या विवाह आदि सम्बंधी पूछे तो संजुतं) सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान सहित (चरनं सुद्धभावस्य) सम्यक्चारित्र पालने कुछ नहीं कहता है और न मन में ही उस सम्बंध में अच्छा या बुरा चिंतवन करता है का जिसका उद्देश्य हो, वह शुद्ध भाव का धारी (उद्दिस्टं आहार सुद्धये) उद्देश्य रहित है। आत्म कल्याण सम्बंधी धर्म की चर्चा करता है। हमेशा राग-द्वेष से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करने वाला उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी है। अहिंसामयी शुद्ध भावों का लक्ष्य रखता है, इसके परिणामों में अहिंसा भाव बहुत (अंतराय मनं कृत्वा) अंतराय मन के (वचनं काय उच्यते) वचन के और अधिक रहता है। अपने निमित्त से किंचित् भी हिंसा हो यह इसे रुचिकर नहीं है काय सम्बंधी कहे गये हैं उनको बचाकर (मन सुद्धं वच सुद्धं च) शुद्ध मन और शुद्ध इसलिये यह पहले से निमंत्रण नहीं मानता, भोजन के समय कोई बुलावे तो चला वचन सहित (उद्दिस्टं आहार सुद्धये) आहार की शुद्धि होना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। जाता है, सदा शुद्ध आत्मा के ध्यान का लक्ष्य रहता है। & विशेषार्थ- ग्यारहवीं प्रतिमा, साधु पद धारण करने के लिये अंतिम सीढ़ी उदासीनता पूर्वक परिवार से अलग एकांत स्थान चैत्यालय, धर्मशाला आदि है। जिसके सारे संसारी उद्देश्य समाप्त हो गये. किसी प्रकार की कामना-वासना में रहकर धर्म ध्यान करना, कुटुम्बी अथवा अन्य श्रावकों के घर जीमने के समय नहीं रही, जो शरीर से निर्ममत्व हो गया, जिसके उत्कृष्ट भाव रत्नत्रय मयी निज बलाने पर भोजन कर आना, सदा संतोषी रहना, किसी से बुरा-भला न कहना, न शद्वात्मा के ध्यान में लीन रहने के हो गये, जिसे अब किसी से कोई प्रयोजन रहा ही राग-द्वेष करना, संसारी शुभ-अशुभ कार्यों में हर्ष-शोक नहीं मानना और न किसी नहीं, जिसके भोजन करने के भाव भी समाप्त हो गये, खाने का राग छूट गया, प्रकार का सांसारिक चितवन करना, ईर्या समिति पूर्वक गमन करना और भाषा समिति मन-वचन-काय सम्बंधी अंतराय का दृढता से पालन करने वाला, मन की शुद्धि, सहित वचन बोलना,यह दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक का व्यवहार आचरण है। वचन की शुद्धि रखने वाला,काय की स्थिरता के लिये भिक्षा द्वाराशुद्ध आहार ग्रहण गृहस्थ संसार सम्बंधी आरम्भ की अनुमति का त्याग होने से पांच पाप का नव " करता है वह उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी है। करता है वह टिप त्याग पति कोटिपूर्वक त्याग होकर पापाश्रव क्रियायें सर्वथा रुक जाती हैं, आकुलता का अभाव यह उत्कृष्ट श्रावक अभी वीतरागी नहीं हुआ है, शरीर से राग का सद्भाव है; होने से चित्त की विकलता दूर होती है जिससे मन वश में होकर इच्छानुसार धर्म परंत वीतरागी होने रत्नत्रय स्वरूप की साधना करने के लिये दृढ संकल्पित है ध्यान में शीघ्र स्थिर होने लगता है। 8 इसलिये घर परिवार से सम्बंध तोड़कर साधुओं के सत्संग में वन आदि में जाकर ११. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा रहता है। शरीर पर मात्र लंगोटी चादर रखता है, भिक्षा द्वारा भोजन ग्रहण करता जो अनुमति त्यागीश्रावक चारित्रमोह के मंद हो जाने से उत्कृष्ट चारित्र अर्थात् है। इस प्रतिमा वाले साधक के दो भेद होते हैं-१. क्षुल्लक, २. ऐलक। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार,तपाचार और वीर्याचार इनपंच आचारों की प्राप्ति __ अनुमति त्याग प्रतिमा तक धर्मशाला में व एकांत घर में अथवा क्षेत्र आदि में एवं रत्नत्रय की शुद्धता और पूर्णता के निमित्त शुद्ध भावों का आराधन करता है, रहकर धर्म साधन कर सकता था। ग्यारहवीं प्रतिमा वाला मुनिराज की संगति में रहेगा संसार से पूर्ण विरक्त होकर अपने समस्त उद्देश्य का त्याग करता है वह उद्दिष्ट त्याग क्योंकि यह मुनि धर्म पालन करने का अभ्यास करने वाला हो जाता है। जैसे- मुनि प्रतिमाधारी है, इसी बात को कहते हैं वर्षाकाल के चार माह सिवाय बिहार करते हैं, नगर के पास पांच दिन, ग्राम के पास २४१

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