Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 245
________________ 6565 श्री आवकाचार जी स्वरूपानंद में रहना उत्तम तप है। , ८. उत्तम त्याग - अपने न्याय पूर्वक उपार्जन किये हुए धन को मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविका के निमित्त औषधि दान, शास्त्र दान (ज्ञान दान), आहार दान और अभय दान में व्यय करना वह व्यवहार त्याग है और राग-द्वेष को छोड़ना वह अंतरंग त्याग है यही उत्तम त्याग है। ९. उत्तम आकिंचन्य- सम्यक्ज्ञान पूर्वक चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग करना उत्तम आकिंचन्य है। बाह्य परिग्रह के दस भेद खेत, मकान, सोना, चांदी, अनाज, पशु, दासी, दास, बर्तन, वस्त्र अंतरंग परिग्रह के चौदह भेद- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इन चौबीस प्रकार के परिग्रह के त्याग सहित अहंकार विसर्जन करना। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शन चेतना वाला सदा अरूपी हूँ, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। १०. उत्तम ब्रह्मचर्य - बाह्य व्यवहार ब्रह्मचर्य तो संभोग स्त्री विषय का त्याग करना है, निश्चय से अपने आत्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करना, ब्रह्म स्वरूप में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। द्वादशानुप्रेक्षा (बारह भावना) - जो वैराग्य उत्पन्न करने में माता के समान हैं और बारम्बार चितवन योग्य हैं वे अनुप्रेक्षा या भावना कहलाती हैं, यह बारह हैं। १. अनित्य भावना- सांसारिक सर्व पदार्थों का संयोग जो जीवन से हो रहा है उसे अनित्य जानकर उनसे राग भाव तजना अनित्य भावना है। २. अशरण भावना - जीव को अपने ही शुभाशुभ कर्म सुख-दुःख देने वाले हैं, संसार में कोई किसी का सहाई रक्षक नहीं है। धर्म, अपना आत्म स्वरूप ही अपने को आप ही शरणरूप है। उदय में आये हुए कर्मों को रोकने में कोई समर्थ नहीं है तथा मरण काल में जीव को बचाने में कोई सहायक नहीं है, इस तरह निरंतर चिंतवन करके अपने आत्म हित की रुचि करना अशरण भावना है। ३. संसार भावना - यह संसार जन्म-मरण रूप है, इसमें कोई भी सुखी नहीं है, प्रत्येक जीव को कोई न कोई दुःख लगा हुआ है, इस प्रकार संसार को दुःख स्वरूप चिंतन करके उसमें रुचि नहीं करना, विरक्त रहना संसार भावना है। ४. एकत्व भावना - यह जीव अकेला आप ही जन्म जरा मरण, सुख-दुःख, संसार, मोक्ष भोगता है, दूसरा कोई भी इसका साथी नहीं है। ऐसा विचार कर किसी SYA YA YA AT YA. गाथा- ४०० के आश्रय की इच्छा न करना, स्वयं आत्म हित में पुरुषार्थ करना एकत्व भावना है। ५. अन्यत्व भावना- इस आत्मा से अन्य सर्व पदार्थ और अन्य सभी जीव अलग हैं ऐसा चिंतवन करते हुए किसी से संबंध नहीं मानना अन्यत्व भावना है। ६. अशुचि भावना यह शरीर हाड़-मांस, रक्त, पित्त, कफ, मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं का घर है ऐसा विचारते हुए शरीर से राग भाव घटाना और सदा आत्मा को शुद्ध करने का विचार करना कि पर्याय में जो रागादि की अशुचिता है वह भी दूर हो ऐसा चिंतवन करना अशुचि भावना है। ७. आस्रव भावना - जब मन, वचन, काय रूप योगों की प्रवृत्ति कषाय रूप होती है तब कर्मों का आस्रव होता है और उससे कर्म बंध होकर जीव को सुख-दुःख की प्राप्ति तथा सांसारिक चतुर्गति का भ्रमण होता है, इस तरह विचार करते हुए आस्रव के मुख्य कारण योग और कषायों को रोकना आस्रव भावना है। ८. संवर भावना - कषायों की मंदता तथा मन, वचन, काय योगों की निवृत्ति जितनी - जितनी होती जाती है, उतना उतना ही कर्मों का आस्रव होना भी घटता जाता है तथा आत्म स्वरूप में उपयोग लगना संवर कहलाता है, इससे कर्मास्रव रुकता है, बंध का अभाव होता है जिससे संसार छूट जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। ९. निर्जरा भावना - शुभाशुभ कर्मों के उदयानुसार सुख-दुःख की सामग्री के समागम होने पर समता भाव धारण करने से तथा तप से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति और अनुभाग घटता है तथा बिना रस दिये ही कार्माण वर्गणायें कर्मत्व शक्ति रहित होकर निर्जरती हैं, इस प्रकार संवर पूर्वक एकदेश निर्जरा और कर्मों का सर्वदेश • अभाव मोक्ष कहलाता है। २२४ १०. लोक भावना - यह लोक ३४३ राजू घनाकार है, जिसके ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक तीन भेद हैं, जिसमें संसारी जीव अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के कारण चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर रहे हैं। जीवों के सिवाय पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह पांच द्रव्य और भी इस लोक में स्थित हैं, इन सबको अपनी आत्मा से अलग चिंतवन करके सबसे राग-द्वेष छोड़कर आत्म स्वभाव में लीन होना ही जीव का मुख्य कर्तव्य है ऐसा विचार करना लोक भावना है। ११. बोधिदुर्लभ भावना - यद्यपि अनादि काल से कर्मों से आच्छादित होने के कारण आत्म ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ हो रही है तथापि यह उत्तम मनुष्य पर्याय,

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