________________
७७७
श्री आवकाचार जी
बढ़ा लेना । ५. प्रमादवश, की हुई मर्यादा को भूल जाना।
दिग्व्रत धारण करने से अणुव्रती को यह विशेष लाभ होता है कि अपने आने-जाने आदि वर्ताव के क्षेत्र का जितना प्रमाण किया है उससे बाहर के क्षेत्र की तृष्णा घट जाती है। मन में उस क्षेत्र संबंधी किसी प्रकार के विकल्प भी उत्पन्न नहीं होते तथा उस त्यागे हुए क्षेत्र संबंधी सर्व प्रकार त्रस स्थावर हिंसा के आश्रव का अभाव होने से वह पुरुष उस क्षेत्र की अपेक्षा महाव्रती के समान हो जाता है।
-
(२) देशव्रत- दिव्रत द्वारा यावज्जीवन प्रमाण किये हुए क्षेत्र को काल के विभाग से घटा घटा कर त्याग करना देशव्रत कहलाता है। जितने क्षेत्र का जीवन पर्यन्त के लिये प्रमाण किया है, उतने में नित्य गमनागमन का काम तो पड़ता ही नहीं अतएव जितने क्षेत्र में व्यवहार करने से अपना आवश्यकीय कार्य सधे, उतने क्षेत्र का प्रमाण दिन-दो दिन, सप्ताह, पक्ष, मास के लिये स्पष्ट रूप से कर लेवे, शेष का त्याग करे जिससे बाहर के क्षेत्र में इच्छा का निरोध होकर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा से रक्षा हो ।
देशव्रत के पांच अतिचार- १. मर्यादा के क्षेत्र से बाहर किसी मनुष्य या पदार्थ को भेजना। २. मर्यादा से बाहर के पुरुष को शब्द द्वारा सूचना देना। ३. मर्यादा से बाहर का माल मंगाना । ४. मर्यादा से बाहर के पुरुष को अपना रूप दिखाकर या इशारे से सूचना देना। ५. मर्यादा से बाहर के पुरुष को कंकर पत्थर आदि फेंककर चेतावनी कराना ।
दिव्रत के प्रमाण में से जितना क्षेत्र देशव्रत में घटाया जाता है उतने क्षेत्र संबंधी गमनागमन का संकल्प-विकल्प तथा आरंभ संबंधी हिंसादि पापों का अभाव हो जाता है, जिससे देशव्रती की त्यागे हुए क्षेत्र में उपचार से महाव्रती के समान प्रवृत्ति रहती है।
(३) अनर्थदण्ड त्याग व्रत - दिशा विदिशाओं की मर्यादा पूर्वक जितने क्षेत्र का प्रमाण किया हो उसमें भी प्रयोजन रहित पाप के कारणों से अथवा प्रयोजन सहित महापाप के कारणों से विरक्त होना अनर्थदण्ड त्याग व्रत है।
अनर्थदण्ड के पांच भेद हैं
१. पापोपदेश- पाप में प्रवृत्ति कराने वाला तथा जीवों को क्लेश पहुंचाने वाला उपदेश देना या वाणिज्य, हिंसा, ठगाई आदि की कथा कहना, जिससे दूसरों पाप में प्रवृत्ति हो जाये। जैसे-किसी से कहना की धान्य खरीद लो, घोड़ा गाय
SYAA AAAAAN FAN ART YEAR.
गाथा- ४०५
भैंस आदि रख लो, कल कारखाने लगाओ, बाग लगाओ, खेती कराओ, अग्नि जलाओ आदि ।
२२८
२. हिंसादान - हिंसा के उपकरण कुल्हाड़ी, तलवार, चाकू आदि हिंसा के लिये देना, भाड़े से देना, दान देना तथा इनका व्यापार करना ।
३. अपध्यान- राग-द्वेष से दूसरों के वध-बंधन, हानि, नाश होने या करने संबंधी खोटे विचार करना, परस्पर का बैर याद करना आदि।
४. दु:श्रुति श्रवण- चित्त में राग-द्वेष के बढ़ाने वाले, क्लेश उत्पन्न कराने वाले, काम जाग्रत कराने वाले, मिथ्याभाव बढ़ाने वाले, आरंभ परिग्रह बढ़ाने वाले, पाप में प्रवृत्ति कराने वाले तथा क्रोधादि उत्पादक शास्त्रों, पुस्तकों, पत्रादि का पठन-पाठन करना, सुनना अथवा इसी प्रकार की कथा कहानी कहना ।
५. प्रमाद चर्या - बिना प्रयोजन घूमना फिरना या दूसरों को घुमाना फिराना । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि को निष्प्रयोजन छेदना-भेदना, घात करना आदि।
अनर्थदण्ड त्याग व्रत के पांच अतिचार- १. नीच पुरुषों जैसे भंड वचन बोलना, काम पूर्ण हंसी मसखरी के वचन कहना। २. काय की भंड रूप खोटी चेष्टा करना, हाथ-पांव मटकाना, मुंह बनाना आदि । ३. व्यर्थ बकवाद करना या छोटी सी बात को बहुत आडंबर बढ़ाकर कहना । ४. बिना विचारे मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना । ५. अनावश्यक भोगोपभोग की सामग्री एकत्रित करना या उसका व्यर्थ व्यवहार करना ।
अर्थदण्ड त्याग करने से प्रयोजन रहित अथवा अल्प प्रयोजन सहित होने वाले पापों से बचाव होता है अतः अतिचार रहित निर्दोष पालन करना चाहिये । चार शिक्षाव्रत
(१) सामायिक शिक्षाव्रत मन-वचन-काय, कृत-कारित अनुमोदना से मर्यादा तथा मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में नियत समय तक हिंसादि पांच पापों का 5 सर्वथा त्याग करना, राग-द्वेष रहित होना, सर्व जीवों के प्रति समता भाव रखना, संयम मय शुभ भाव करना, आर्त- रौद्र भाव का त्याग करना सामायिक शिक्षाव्रत है। सम अर्थात् राग-द्वेष रहित, आय अर्थात् आत्मा में उपयोग की प्रवृत्ति सामायिक है। साम्य भाव होने पर ही आत्म स्वरूप में चित्त मग्न होता है।
सामायिक करने में विशेष ध्यान देने योग्य नौ बातें - १. योग्य द्रव्य (पात्र),