________________
२०७
श्री आवकाचार जी
का दान देना ही शुद्ध दान है। यह निश्चय-व्यवहार का समन्वय अध्यात्मवादी संतों के जीवन से प्रमाणित होता है। व्यवहार में पात्र जीवों को उनकी आवश्यकतानुसार चार प्रकार का दान देना और निश्चय से अपने शुद्धात्म स्वरूप में सदा रत रहना ही शुद्ध दान है। यह जीव अनादि काल से अपने आत्म स्वरूप को भूला हुआ भूखा, दीन-हीन, निर्बल हो रहा है। इसे अपने शुद्धात्म स्वरूप का बोध कराना आहार दान है। वस्तु स्वरूप बताना ज्ञान दान है। निरंतर सत्संग स्वाध्याय तत्वनिर्णय आदि करना औषधि दान है। अपने परमात्म स्वरूप का उत्साह बहुमान जगाना, अभय बनाना अभय दान है। ऐसे शुद्ध धर्म, अपने शुद्ध स्वभाव में रत रहने की भावना वाले पात्र जीवों की उचित अनुकूल व्यवस्था करना, देखभाल सम्हाल करना यही शुद्ध दान से संयुक्त होना है। सच्चा पात्र रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा है, उसको स्वात्मानन्दामृत का दान देना परम शुद्ध दान है। व्यवहार में प्रतिदिन चार प्रकार का दान जीव मात्र को उसकी आवश्यकतानुसार प्रेम भक्ति करुणा पूर्वक देना सद्ग्रहस्थ का परम कर्तव्य है। दान देने से इस भव में सम्मान मिलता है, प्रभावना होती है तथा जब तक संसार में रहना है तब तक दिया हुआ दान ही सहकारी होता है। घर ग्रहस्थी में रहते हुए प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है कि हमेशा दान देने की भावना प्रभावना करता रहे। सम्यक्दृष्टि श्रावक दोनों प्रकार का दान देता है तभी उसकी पात्रता बढ़ती है और धर्म की प्रभावना होती है।
इस प्रकार इन शुद्ध षट्कर्मों का पालन करने वालों की विशेषता बतलाते हैंये बद कर्म सुद्धं च जे साधैति सदा बुधै ।
मुक्ति मार्गं धुवं सुद्धं, धर्म ध्यान रतो सदा ॥ ३७५ ।। ये षट् कर्म च आराध्य, अविरतं श्रावर्ग धुर्व।
संसार सरनि मुक्तस्य, मोषगामी न संसयः ॥ ३७६ ।।
-
अन्वयार्थ (ये षट् कर्म सुद्धं च) यह शुद्ध षट्कर्म शुद्ध हैं (जे सार्धंति सदा बुधै) जो ज्ञानी सदा इन षट्कर्मों की साधना करते हैं (मुक्ति मार्गं धुवं सुद्धं) वे निश्चय शुद्ध मुक्ति मार्ग के पथिक हैं (धर्म ध्यान रतो सदा) जो सदा धर्म ध्यान में रत रहते हैं।
(ये षट् कर्म च आराध्यं) यह शुद्ध षट्कर्मों का जो आराधन करते हैं (अविरतं श्रावगं धुवं) वे अविरत श्रावक शुद्ध दृष्टि हैं (संसार सरनि मुक्तस्य) वह संसार के
rock resist
swasthenos
गाथा-३७५, ३७६
परिभ्रमण से मुक्त होकर (मोषगामी न संसय:) मोक्षगामी होंगे इसमें कोई संशय नहीं है ।
२११
विशेषार्थ - इस प्रकार शुद्ध षट्कर्मों का वर्णन किया, जो ज्ञानी सम्यकदृष्टि श्रावक इनका पालन करते हैं वे सच्चे मोक्षमार्ग के पथिक हैं, जो धर्म ध्यान में रत रहते हुए अपनी पात्रतानुसार धर्म साधना करते हुए संसार परिभ्रमण से मुक्त होकर मोक्षगामी होंगे इसमें कोई संशय नहीं है। यहां सद्गुरु श्री तारण स्वामी ने शुद्ध षट्कर्मों का जो निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक वर्णन किया है यह अपने आपमें अपूर्व है, वास्तव में जिसे अपना आत्म कल्याण करना हो वह इसका चिंतन-मनन आराधन करे और तद्रूप पालन आचरण करे वह शुद्ध सम्यदृष्टि निश्चित मोक्षगामी है इसमें कोई संशय नहीं है। सच्ची देवपूजा शुद्ध सम्यक्दर्शन सहित अर्थात् निज आत्मानुभूति पूर्वक जो पंचपरमेष्ठी पद की साधना करता है, पचहत्तर गुणों को अपने जीवन में उतारता है वह निश्चित देवत्व पद को प्राप्त करेगा। यही अध्यात्म में सच्ची देवपूजा है, परावलम्बन किसी नाम, रूप, साकारमूर्ति आदि के माध्यम से कभी मुक्ति नहीं हो सकती ।
-
निग्रंथ वीतरागी साधु की भक्ति सत्संग द्वारा निज अंतरात्मा का जागरण होना और वीतराग मार्ग पर चलना ही सच्ची गुरू उपासना है। सत्शास्त्रों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त करना व्यवहार स्वाध्याय है तथा अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आराधन करना निश्चय स्वाध्याय है। पांच इन्द्रिय और मन का दमन करना तथा छह काय के प्राणियों की रक्षा हेतु यम, नियम रूप संयम पालन करना व्यवहार संयम है। निश्चल शुद्धात्मा में रमण करना, अपने शुद्धात्म स्वरूप की निरंतर सुरत रहना निश्चय संयम है। अनशन आदि बारह प्रकार का तप शक्ति अनुसार पालन करना व्यवहार तप है। अपने शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहना निश्चय तप है। पात्रों को भक्ति पूर्वक तथा दुखियों को दया पूर्वक दान देना व्यवहार दान है और अपने ही आत्मा का अनुभव करके ज्ञानामृत का दान करना निश्चय दान है। इन षट्कर्मों का अव्रती ग्रहस्थ श्रावक को हमेशा पालन करना चाहिये, यह मोक्षमार्ग में सहकारी कारण हैं। इनका निरंतर पालन करते हुए धर्म ध्यान में रत रहना योग्य है। अपने लौकिक कार्यों की बहुतायत होने पर भी, बहुत आरंभ काम धंधा होने पर भी जो इनके लिये समय निकालता है वही सच्चा धर्म प्रेमी है। जिस तरफ की रुचि भावना होती है, उधर ही पुरुषार्थ काम करता है। जिसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति, भेदज्ञान