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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३७१,३७४COOO सच्चा मोक्षमार्ग है, यही परम उपादेय है जिसका शुद्ध सम्यक्दृष्टि पालन करता है। .विविक्त शय्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय,ध्यान की सिद्धि के लिये एकांत आगे शुद्ध तप के स्वरूप का वर्णन करते हैं
में शयन करना, रहना। तपं अप्प सद्भाव, सुख तत्व सचिंतनं ।
६.काय क्लेश-जिस प्रकार चित्त में क्लेश, खेदन उपजे उस प्रकार अपनी सुद्ध न्यान मयं सुद्धं, तथाहि निर्मलं तपं ॥३७३॥
* शक्ति के अनुसार साम्य भाव पूर्वक खड़े होकर ध्यान सामायिक करना।
छह अंतरंग तपअन्वयार्थ-(तपं अप्प सद्भाव) शुद्ध तप अपने आत्म स्वभाव में रहना, ठहरना
१.प्रायश्चित-प्रमाद जनित दोषों का प्रतिक्रमण आदि करना। है (सुद्ध तत्व सचिंतनं) अपने शुद्धात्म तत्व का भले प्रकार चिन्तन करना (सद्ध
२.विनय- सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के प्रति श्रद्धा बहुमान होना तथा जो न्यान मयं सुद्ध) अपने शुद्ध ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में ठहरना (तथाहि निर्मलं तप)
। रत्नत्रय के धारी श्रावक साधु हों उनकी विनय भक्ति करना। इसी को निर्मल शुद्ध तप कहते हैं।
३.वैयावृत्य-अपने उपयोग की देखभाल सम्हाल करना तथा त्यागी साधु विशेषार्थ-शुद्ध षट्कर्मों में यहाँ शुद्ध तप का स्वरूप बताया जा रहा है, संयमी तपस्वियों की सेवा सम्हाल करना। अपने आत्म स्वभाव में लीन होना ही शुद्ध तप है। तप से कर्मों की निर्जरा होती है, ४. स्वाध्याय-अपने परिणाम, प्रवृत्ति-निवृत्ति का अध्ययन करना तथा अपने शुद्धात्म तत्व का भले प्रकार चिंतवन करना ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव में ठहरना ज्ञान भावना के सत्शास्त्रों का स्वाध्याय पठन-पाठन करना। यही निर्मल शुद्ध तप है। इसके लिये बारह प्रकार का तप साधन करना भी आवश्यक
५. व्युत्सर्ग- अंतरंग तथा बाह्य परिग्रह के त्याग रूप बुद्धि रखना, अपने है. जिससे इन्द्रियां प्रबल होकर मन को चंचल न करें। इसके लिये अन्तरंग में स्वरूप में लीन रहना। विषय-कषायों की निवृत्ति करना- "इच्छा निरोधस्तपः" इच्छाओं का निरोध
६. ध्यान- समस्त चिंताओं को त्यागकर मंद कषाय रूप धर्म ध्यान करना तप है, तप के बारह भेद हैं-छह बाह्य तप
करना। इसके लिये प्रात: सायं एकांत में बैठकर सामायिक करना आवश्यक है। १.अनशन-आत्मा का इन्द्रिय और मन की विषय वासनाओं से रहित होकर
मन का विषयवासनाआ सराहत हाकर वास्तव में निर्मल व शुद्ध तप वही है जो आत्मा अपनी आत्मा में तपे. अपने आत्म स्वरूप में वास करना उपवास है। संयम की सिद्धि, राग के अभाव, शद्वात्मानभव हो वही तप कर्म की अविपाक निर्जरा करने वाला है, परमानंद का देने कर्मों के नाश, ध्यान और स्वाध्याय में प्रवृत्ति के निमित्त इन्द्रियों को जीतना, वाला परमोपकारी है, ज्ञान स्वभाव में रमण करना ही सच्चा तप है। इसलोक-परलोक संबंधी विषयों की वांछा न करना, मन को आत्म स्वरूप अथवा
आगे शुद्ध दान का स्वरूप कहते हैंशास्त्र स्वाध्याय में लगाना, क्लेश उत्पन्न न हो उस प्रकार एक दिन की मर्यादा रूप
दानं पात्र चिंतस्य, सुद्ध तत्व रतो सदा। चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। २.अवमौवर्य-कीर्ति, माया, कपट, मिष्ट भोजन के लोभ रहित अल्प आहार
सुद्धधर्म रतो भावं, पात्र चिंता दान संजुतं ।। ३७४ ॥ लेना अवमौदर्य या ऊनोदर तप है।
अन्वयार्थ- (दानं पात्र चिंतस्य) दान अर्थात् देना, पात्रों को भक्ति भाव से ३. वृत्ति परिसंख्यान- अपनी वृत्ति, भोजन की रुचि को घटाने के लिये उनकी आवश्यकतानुसार चार दान देना (सुद्ध तत्व रतो सदा) शुद्ध तत्व में सदारत अटपटीप्रतिज्ञा लेना। चटपटी छोड़ अटपटी खाना अर्थात् जो कुछ जैसा मिल जाये। रहना निश्चय दान है (सुद्ध धर्म रतो भावं) अपने शुद्ध धर्म,शुद्ध स्वभाव में रत रहने । शांत भाव से ग्रहण करना।
की भावना वाले (पात्र चिंता दान संजुतं) पात्र की विशेष व्यवस्था, सम्हाल करना, ४. रस परित्याग- इन्द्रियों का दमन करने के लिये छह रसों में से एक का दान देना शुद्ध दान है। या अधिक रसों का त्याग करना।
विशेषार्थ-यहां श्री तारण स्वामी ने दान का स्वरूप कहा है कि दोनों प्रकार
perstoderma
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