Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 218
________________ श्री आवकाचार जी सकते, उसी प्रकार रत्नत्रय सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र बिना साधु कायम नहीं रह सकता और रत्नत्रय के बिना आत्म कल्याण संभव नहीं है इसलिये भव्य जीवों को रत्नत्रय ही पूजने योग्य है, जो रत्नत्रय की पूजा अर्थात् अपने जीवन में रत्नत्रय धारण करते हैं, वही सच्ची देवपूजा करते हैं; क्योंकि रत्नत्रय, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र का नाम ही देव है अत: इन तीनों गुणों से विशिष्ट जो जीव हैं वह देव हैं इसलिये यह पाँच पद परम इष्ट माने गये हैं। इन पाँच पदों की साधना करने और इन गुणों की उपासना करने का अधिकारी कौन जीव होता है, उसकी पात्रता और विशेषता क्या होती है ? यह प्रश्न करने पर सद्गुरू तारण स्वामी आगे उस जीव की पात्रता और विशेषता का वर्णन करते हैं जिसमें सबसे पहले सम्यक्त्व के आठ अंग होते हैं, वही पात्र जीव इसकी साधना पूजा का अधिकारी होता है और उसकी विशेषता ज्ञान के आठ अंगों का पालन करना, चार अनुयोगों का सम्यक् श्रद्धान होना और तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करना इसका विवेचन आगे की गाथाओं में किया जा रहा हैदेव गुनं पूज सार्धं च, अंगं संमिक्त सुद्धये । सार्धं न्यान मयं सुद्धं संमिक दरसन उत्तमं ।। ३४३ ॥ 9 अन्वयार्थ - (देव गुनं पूज सार्धं च) देव के गुणों की पूजा और साधना करने वाले को (अंग संमिक्त सुद्धये) सम्यक्त्व के आठ अंगों से शुद्ध होना चाहिये (सार्धं न्यान मयं सुद्धं) जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धानी है (संमिक दरसन उत्तमं वही उत्तम अर्थात् निश्चय सम्यक्दर्शन वाला पात्र जीव है। विशेषार्थ यहाँ सच्ची देवपूजा अर्थात् देवत्व पद प्राप्ति के गुणों का आराधन धारण करने वाले जीव की पात्रता को बताया जा रहा है। देव के गुणों की पूजा और साधना करने वाले को सम्यक्त्व के आठ गुणों से शुद्ध होना चाहिये, जो अपने ज्ञानमयी शुद्ध स्वभाव का श्रद्धानी, शुद्धात्मानुभूति करने वाला है वही उत्तम सम्यक्दर्शन वाला पात्र जीव है। सम्यक्दर्शन होने पर यह आठ अंग अपने आप प्रगट होते हैं। १. नि:शंकित, २ . नि: कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ दृष्टि, ५. उपगूहन, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८ प्रभावना । १. निःशंकित अंग- आत्मा के त्रिकाली स्वभाव की श्रद्धा ही निःशंकित अंग SYA YA YA ART YEAR. गाथा- ३४३ है। शंका से भय का जन्म होता है। सात भय मिथ्यादृष्टि को होते हैं - १. इहलोक भय, २. परलोक भय, ३. वेदना भय, ४. अरक्षा भय, ५. अगुप्ति भय (चोर भय), ६. मरण भय, ७. अकस्मात भय । सम्यदृष्टि इन सात भयों से रहित होता है। शंका या भय रहित होकर दृढ़ता पूर्वक आत्म स्वरूप का श्रद्धान होना निःशंकित अंग है, ऐसी निर्भयता में हेतुभूत उसका जिनशासन (वस्तु की स्वतंत्रता) का दृढ़ श्रद्धान ही है। सच्चे देव गुरू शास्त्र का यथार्थ स्वरूप सहित दृढ़ श्रद्धान करना व्यवहार निःशंकित अंग है। १९७ २. नि: कांक्षित अंग - जिसे आत्मीय अमृत रस का स्वाद आ गया है, वह अन्य रस का आकांक्षी नहीं होता, अतः सम्यदृष्टि संपूर्ण सांसारिक आकांक्षाओं से रहित आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का भोक्ता है। यही परमार्थ से उसका नि:कांक्षित अंग है। व्यवहार से आत्मभिन्न पदार्थों में उसका ऐसा विश्वास है कि उनका संयोग कर्माधीन है, नाशवान संयोग में सुख नहीं है, सुखाभास है। वह सुखाभास भी दुःखों मिश्रित है, एकान्त सुख का भी आभास उसमें नहीं होता। उन सांसारिक सुख भोगों में रागादि कषायों का आलम्बन रहने से वे पाप बंध के कारण बनते हैं, जिनका फल अत्यन्त दुःख है, ऐसे दुखान्त फल वाले सांसारिक सुख की उसे किंचित् भी वांछा नहीं होती, यह नि:कांक्षित अंग का व्यवहारिक रूप है, यही उसके अनन्तानुबंधी राग का अभाव या वीतराग भाव है। ३. निर्विचिकित्सा अंग जो वस्तु को उसके स्वरूप से देखता है उसे किसी से घृणा ग्लानि नहीं होती, उसे धर्म में प्रीति होती है, ज्ञानी को अपने स्वरूप प्रवर्तन में दृढ़ रुचि है, यही उसका निर्विचिकित्सा अंग है। वह अन्य धर्मात्माजनों की सेवा करता है, साधुओं की वैयावृत्ति करता है, यही उसका व्यवहारिक रूप है । उनकी सेवा में शारीरिक मलादि के कारण उसे घृणा नहीं होती, शरीर का स्वभाव सड़न-गलन रूप है, चाहे अपना हो या अन्य साधु का हो उससे घृणा कैसी ? अत: व्यवहारिक रूप में धर्मात्माओं से प्रीति करता हुआ सेवा करता है यह निर्विचिकित्सा अंग है, यही द्वेष का अभाव है। > ४. अमूद दृष्टि अंग- सम्यकदृष्टि के निजात्म तत्व से भिन्न सभी पंचेन्द्रिय विषयों पर मोहभाव नहीं है, यही उसकी मोह, (मूढ़ता) रहित दृष्टि है, अपने निश्चय दर्शन ज्ञान चारित्र स्वभाव में रुचि है यही उसका पारमार्थिक रूप है। जहाँ श्रद्धान में समस्त पर पदार्थों में मोह का अभाव है यही अमूढ़ दृष्टि अंग है, मिथ्यामार्ग और

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