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POON श्री श्रावकाचार जी दिव्यानुयोग उत्पादंते,दिव्य दिस्टीच संजुतं ।
भिन्न-भिन्न हैं। जैसे तिल में तेल और खली अलग-अलग हैं, धान में चावल और अनंतानंत दिस्टते, स्वात्मानं विक्त रूपयं ॥ ३५६ ॥ छिलका भूसी अलग है, स्फटिक मणि में स्फटिक और लाल डाक अलग है, गहने में दिव्यं दिव्य दिस्टीच, सर्वन्यं सास्वतं पदं।
. सोना और खार अलग है। इसी प्रकार इस शरीर में शरीर से भिन्न जीवात्मा है, जो नंतानंत चतुस्टं च, केवलं पदम धुर्व ॥ ३५७॥
४ सर्वज्ञ स्वरूपी परमात्मा है, जो जीव ऐसा भेदविज्ञान पूर्वक भिन्नता भासित करते
हैं, वह सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहलाते हैं और अपने स्वरूप की साधना करके आत्मा से अन्वयार्थ- (दिव्यानुयोग उत्पादंते) द्रव्यानुयोग उत्पन्न होता है (दिव्य दिस्टी
5 परमात्मा हो जाते हैं। संसार के जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त होने का एकमात्र यही च संजतं) द्रव्य दृष्टि और उसमें लीन होना (अनंतानंत दिस्टते) अनंतानंत संसार ८ उपाय है। द्रव्यदृष्टि होने पर ही यह मुक्ति का मार्ग बनता है और यह आत्मा परमात्मा में उसे दिखाई देता है कि (स्वात्मानं विक्त रूपयं) अपना आत्मा ही अनुभूतियुत होता है। प्रत्यक्ष प्रगट स्वरूप है।
इस प्रकार यह चार अनुयोगों का स्वरूपबताया, इसको जानकर क्या करना (दिव्यं दिव्य दिस्टी च) इस द्रव्यानुयोग और द्रव्यदृष्टि की अपूर्व महिमा है चाहिये यह आगे की गाथा में कहते हैं(सर्वन्यं सास्वतं पदं) यह अपने सर्वज्ञ स्वरूप शाश्वत पद सिद्ध स्वरूप को बताती
चत्वारि गुण जानते, पूजा वेदंति जं बुध। है (नंतानंत चतुस्टं च) जो अनंत चतुष्टय वाला (केवलं पदमं धुवं) केवलज्ञानमयी ध्रुव पद है।
संसार भ्रमण मुक्तस्य, सुखं मुक्ति गामिनो॥३५८॥ विशेषार्थ- यह चौथा अनुयोग द्रव्यानुयोग है. जिसमें ६ द्रव्य.५अस्तिकाय.
अन्वयार्थ- (चत्वारि गुण जानते) जो इन चारों अनुयोग के स्वरूप और गुणों ७ तत्व,९ पदार्थ का स्वरूप बताया है. जिसमें प्रमख जीव द्रव्य से जीवतत्व होने को जानकर (पूजा वेदंतिजं बुधै) जो ज्ञानीजन इसकी अनुभूति और आचरण रूप का रहस्य स्पष्ट किया गया है। जगत में जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानंत, धर्म पूजा करते हैं (संसार भ्रमण मुक्तस्य) वह संसार के भ्रमण से मुक्त होकर (सुद्ध एक, अधर्म एक, आकाश एक और कालाणु असंख्यात हैं। जीव पुदगल में मुक्ति गामिनो) अपने शुद्ध स्वभाव की साधना करके मोक्षगामी परमात्मा हो जाते हैं। स्वभाव-विभाव रूप परिणमन शक्ति होती है,शेष चारों द्रव्य अपने स्वभाव रूपही विशेषार्थ- जो ज्ञानी साधक पात्र जीव इन चारों अनुयोगों के द्वारा अपने परिणमन करते हैं। इनमें एक जीव चेतन शक्ति वाला और शेष पाँच अजीव अचेतन 2 स्वरूप और गुणों को जानकर इसकी अनुभूति और आचरण रूप पूजा करते हैं हैं। अनादि से मिले एकमेक होने के कारण संसार चल रहा है। जीव, तत्वदृष्टि से अर्थात् स्वाध्याय से सार वस्तु को ग्रहण कर उस मार्ग पर चलते हैं, वह संसार भ्रमण सिद्ध के समान शुद्ध परमात्म स्वरूप है। अपने स्वरूप को भूला है, इसलिये आस्रव से मुक्त होकर अपने शुद्ध शाश्वत सिद्ध पद को पाते हैं। जैनदर्शन के मर्म और बंध करता हुआ संसार में रुल रहा है । द्रव्यानुयोग में इसे अपने सत्स्वरूप का मुक्ति प्राप्त करनेवाले जीव के लिये यह चार अनुयोग, पाँच समवाय (स्वभाव, निमित्त, दिग्दर्शन कराया गया है कि प्रत्येक जीव आत्मा अपने स्वभाव से त्रिकाल शुद्ध पुरुषार्थ, काललब्धि, नियति) और दो नय (निश्चय नय-व्यवहार नय) का ज्ञान
चैतन्यमयी अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा के समान सर्वज्ञ स्वरूपी शाश्वत पद वाला होना अति आवश्यक है क्योंकि इनको जाने बिना यह जीव संसार से छूटकर मुक्त र अनन्तचतुष्टय- अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य वाला नहीं हो सकता, एकान्त पक्ष से कहीं भी अटककर रह जावेगा।
केवलज्ञान मयी धुवतत्व है। अपने स्वरूप को भूला हुआ यह शरीर ही मैं हूँ, यह जो जिनागम की सदा अच्छी रीति से उपासना करता है, उसे सात गुणों की शरीरादि मेरे हैं और मैं इनका कर्ता हूँ ऐसी मान्यता कर संसार की चार गति और प्राप्ति होती हैचौरासी लाख योनियों में रुल रहा है। द्रव्यानुयोग भेदविज्ञान द्वारा द्रव्य दृष्टि कराता
१.त्रिकालवर्ती अनन्त द्रव्य पर्यायों के स्वरूप का ज्ञान होता है। है कि यह जड़ शरीरादि पुद्गल कर्म और जीव एकमेक मिले हुए होने पर भी २. हित की प्राप्ति और अहित के परिहार का ज्ञान होता है।
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