________________
Ou4 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-७२ POOO आनंदमय ही देखना चाहते हैं उन्हें किसी से कोई भेद भाव होता ही नहीं है। अविनाभाव रखने वाला द्रव्य इन तीन रूप ही होता है। आशय यह है कि आत्मा का
इस प्रकार जब सदगुरू अपने आत्म स्वरूप के ध्यान में लीन होते हैं तो उनके जोशुद्ध भाव निर्जरा आदि का कारण है वही परम पूज्य है और उससे युक्त आत्मा । समस्त कर्म गलते बिलाते हैं, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
. ही परमगुरू है।न्यायानुसार गुरुपने का कारण केवल दोषों का नाश हो जाना ही है। कर्म त्रि विनिर्मुक्त, व्रत तप संजम संजुतं ।
3 ।जो निर्दोष है वही जगत का साक्षी है और वही मोक्षमार्ग का नेता है. अन्य नहीं। ७ सुद्ध तत्वं च आराध्यं,दिस्टतं संमिक दर्सनं ॥७२॥
२ मुनि की यह छद्मस्थता भी गुरुपने का नाश करने के लिये समर्थ नहीं है; क्योंकि
5 रागादि अशुद्ध भावों का कारण एक मोह कर्म माना गया है। अन्वयार्थ- (सुद्ध तत्वं च आराध्यं) सद्गुरू शुद्ध तत्व, शुद्धात्म स्वरूप की ही
यहाँ प्रश्न है कि छद्मस्थ गुरुओं में दोनों आवरण कर्म और वीर्य का नाश आराधना करते हैं (दिस्टतं संमिक दर्सन) जैसा सम्यक्दर्शन में आया था वैसा देखते
हैं करने वाला अन्तराय कर्म नियम से है इसलिये उनमें शुद्धता कैसे हो सकती है?
, हैं (व्रत तप संजम संजुतं) व्रत तप और संयम में लीन रहते हैं (कर्म त्रि विनिर्मुक्तं) S
उसका समाधान करते हैं कि यह बात ठीक है किन्तु इतनी विशेषता है कि इससे तीनों प्रकार के कर्म अपने आपछूटते जाते हैं।
* उक्त तीनों कर्मों का बन्ध, सत्व, उदय और क्षय मोहनीय कर्म के साथ अविनाभावी विशेषार्थ- सद्गुरू शुद्ध तत्व की आराधना करते हैं। जैसा सम्यक्दर्शन में है। खुलासा इस प्रकार है कि मोहनीय का बन्ध होने पर उसके साथ-साथ अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव किया था उसे ही देखते हैं। व्रत, तप, संयम में लीन ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध होता है। मोहनीय के सत्व रहते इनका सत्व रहता है। रहते हैं, इससे तीनों कर्मों-द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्मों से मुक्त होते जाते हैं। मोहनीय का पाक होते समय इनका पाक होता है और मोहनीय के क्षय होने पर इसी बात को पंचाध्यायी में गाथा ६२१ से ६३६ में स्पष्ट किया है -
इनका क्षय होता है। यदि कोई ऐसी आशंका करे कि छास्थ अवस्था में ज्ञानावरणादि अरहंत और सिद्धों से नीचे जो अल्पज्ञ हैं और उसी रूप अर्थात् दिगम्बरत्व, कर्मों का क्षय होने के पहले ही मोहनीय का क्षय हो जाता है सो ऐसी आशंका करना वीतरागत्व, हितोपदेशित्व को धारण करने वाले हैं वे गुरू हैं, क्योंकि इनमें ठीक नहीं है: क्योंकि मोहनीय का एकदेश क्षय होने से इनका एकदेश क्षय होता है न्यायानुसार गुरू का लक्षण पाया जाता है। यह उनसे भिन्न और कोई दूसरी और मोहनीय का सर्वथा क्षय होने से इनका भी सर्वथा क्षय हो जाता है। सम्यक्दृष्टि अवस्था को धारण करने वाले नहीं हैं। इनमें अवस्था विशेष पाई जाती है। यह बात के समस्त कर्मों की निर्जरा होती है, यह बात असिद्ध भी नहीं है क्योंकि दर्शन यक्ति अनुभव और आगम से सिद्ध है; क्योंकि उनमें शेष संसारी जीवों से कोई मोहनीय के उदय के अभाव होने पर वहां से लेकर वह उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी विशेष अतिशय देखा जाता है। भावि नैगमनय की अपेक्षा से जो होने वाला है वह होने लगती है इसलिये छद्मस्थ गुरुओं के यद्यपि वर्तमान में तीनों कर्मों का सद्भाव उस पर्याय से युक्त की तरह कहा जाता है क्योंकि उसमें नियम से भाव की व्याप्ति कहा गया है तथापि राग-द्वेष और मोह का अभाव हो जाने से उनमें गुरुपना माना पाई जाती है इसलिये ऐसा कहना युक्ति युक्त है। उनमें दर्शन मोहनीय कर्म की गया है। उपशान्ति अर्थात् उपशम, क्षय, क्षयोपशम हो जाने से सम्यक्दर्शन भी पाया जाता यहां देव के स्वरूप आदि का निर्देश करके गुरू के स्वरूप का विचार किया है और चारित्रावरण कर्म का एकदेश क्षय (क्षयोपशम) हो जाने से सम्यक्चारित्र भी गया है। पाया जाता है इसीलिये उनमें स्वभाव से ही शुद्धता सिद्ध होती है और इसकी पुष्टि जो संसारी अवस्था से उठ रहा है किन्तु देवत्व को नहीं प्राप्त हुआ है उसकी 2 करने वाला हेतु भी पाया जाता है क्योंकि उनके मोहनीय कर्म का उदय नहीं है, गरु संज्ञा है। यह संसारी जीव की देवत्व से कड़ी जोड़ता है इसलिये आदर्श के वहाँ मोहनीय कर्म का कार्य भी नहीं पाया जाता है। उनकी यह शुद्धता नियम से समान होने से गुरु इस संज्ञा को प्राप्त होता है। इसमें उन सब गुणों का विकास संवर, निर्जरा का कारण है और क्रम से मोक्ष दिलाने वाली है। यह बात सुप्रसिद्ध है प्रारंभिक अवस्था में प्रयोग रूप से देखा जाता है जो विशेष रूप से देव में पाये जाते अथवा वह शुद्धत्व ही नियम से स्वयं निर्जरा आदि तीन रूप है; क्योकि शुद्ध भावों से हैं। वे गण मख्यतया दिगम्बरत्व, हितोपदेशित्व और वीतरागत्व हैं। यद्यपि इन गुणों