Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ Oup श्री श्रावकाचार जी गाथा-२६०-२६३ ROO विशेषार्थ- यहां उत्तम पात्र का स्वरूप कहते हैं, उत्तम पात्र जिन रूपी निर्ग्रन्थ यहाँ देने योग्य उत्तम पात्र के स्वरूप का वर्णन किया, आगे मध्यम पात्र व्रती वीतरागी साधु हैं, जो जिनेन्द्र के कथनानुसार अपना चारित्र भले प्रकार पालते हैं। श्रावक का स्वरूप कहते हैंजो निश्चय से रत्नत्रय के साधक अपनी आत्मानुभूति में रत रहने वाले, व्यवहार से । उत्कृष्टं श्रावकं जेन, मध्य पात्रं च उच्यते । पंच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति के पालनकर्ता हैं, जो संसार के ऊर्ध्व, अधो मति सुत न्यान संपून, अवधं भावना कृतं ॥ २६०॥ 6 मध्य लोक के स्वरूप को जानते हैं और इस संसार चक्र से छटने का ही पुरुषार्थ अन्या वेदक संमिक्तं,उपसमं सार्थ धुवं । करते हैं। षट्कमल-पद्मकमल, गुप्तकमल, नाभिकमल, हृदय कमल, कंठ कमल, 5 विंदकमल के माध्यम से योग को एकाग्रकर ॐ ह्रीं श्रीं की साधना करने, अपने परमात्म: पदवी द्वितिय आचार्य च, मध्य पात्रसदा बुधै ॥ २६१॥ स्वरूप के ध्यान में लीन रहने का सदा अभ्यास करते हैं। पंच ज्ञानमयी अपने स्वात्मा उर्वकारं च वेदन्ते, हींकारं सुत उच्यते । का दर्शन ज्ञान और अनुभव करते रहते हैं जिससे अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है, रिजु अचव्यु दर्सन जोयंते, मध्य पात्र सदा बुध ।। २६२॥ विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान का प्रकाश होने लगता है तथा इसी साधना से केवलज्ञान प्रतिमा एकादसं जेन, व्रत पंच अनुव्रतं । प्रगट होता है। ऐसे आत्म स्वरूप के साधक जिनरूपी निग्रंथ वतिरागी ज्ञानी साधु ही उत्तम पात्र होते हैं, जिन्हें दान देने का अतिशय फल होता है। उत्तम पात्र साधुओं के साधं सुख तत्वार्थ, धर्म ध्यानं च ध्यायते ॥ २३॥ भी तीन भेद हैं- उत्तम, मध्यम, जघन्य। अन्वयार्थ- (उत्कृष्टं श्रावकं जेन) जो उत्कृष्ट श्रावक हैं (मध्य पात्रं च उच्यते) १.जो तीर्थकर भगवान साधु अवस्था में हैं वे उत्तम में उत्तम पात्र हैं। ? वेमध्यम पात्र कहे जाते हैं (मति सुतन्यान संपून) जो मति श्रुतज्ञान से परिपूर्ण होते २.जो ऋद्धिधारी साधु से लेकर चार ज्ञान तक के धारी हैं वे उत्तम में मध्यम हैं (अवधं भावना कृतं) और अवधिज्ञान की भावना करते हैं। पात्र हैं। ॐ (अन्या वेदक संमिक्तं) जो आज्ञा सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व (उपसमं साध ३. जो साधु मात्र आत्मस्वरूप के साधक रत्नत्रय के धारी हैं वे उत्तम में धुवं) या उपशम सम्यक्दृष्टि अपने ध्रुव स्वरूप की साधना करते हैं (पदवी द्वितिय जघन्य पात्र हैं। आचार्य च) और दूसरी आचार्य पदवी के धारी होते हैं (मध्य पात्र सदा बुधै) ऐसे ज्ञानी इन उत्तम पात्रों को गृहस्थों के द्वारा दान दिया जाना मोक्ष प्राप्ति में उनके ही सदा मध्यम पात्र होते हैं। लिये परम सहायक है तथा दाता को भी अतिशय पुण्य बंध का कारण है। साधु अपने (उर्वकारं च वेदन्ते) जो अपने परमात्म स्वरूप का अनुभव करते हैं (हींकारं लिये भोजन का प्रबन्धन करते हैं, न कराते हैं तथा जो उनके लिये बनाया गया हो सुत उच्यते) जो तीर्थंकरों द्वारा स्वरूप कहा गया है (अचष्यु दर्सन जोयते) अचक्षु ऐसा आहार भी नहीं लेते, इसमें उद्दिष्ट आहार का दोष लगता है। गृहस्थ ने जो अपने दर्शन में अपने उस स्वरूप को देखते हैं (मध्य पात्र सदा बुधै) वेज्ञानी सदा मध्यम लिये बनाया हो उसी में से भक्तिपूर्वक दिये हुए आहार को लेते हैं। मूलाचार में कहा पात्र कहे जाते हैं। म (प्रतिमा एकादसं जेन,व्रतपंच अनुव्रतं)जो ग्यारह प्रतिमा और पांच अणुव्रतों मुनि महाराज नतो भोजन के लिये किसी की स्तुति करते हैं,नयाचना करते ० का पालन करते हैं (साधं सुद्ध तत्वार्थ) अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करते हैं। 9 हैं, मौन व्रत से भिक्षा को जाते हैं, बिना बोले हुए जो शुद्ध आहार मिल गया तो ले लेते (धर्म ध्यानं च ध्यायते) और धर्म ध्यान की साधना करते हैं, वे मध्यम पात्र हैं। हैं, यदि नहीं मिलता तो समता भाव से लौट आते हैं; अत:सद्गृहस्थ श्रावक को ऐसा विशेषार्थ- यहाँ मध्यम पात्र सम्यक्दृष्टि व्रती श्रावक के स्वरूप को बताया जा पदार्थ दान में देना चाहिये जो राग-द्वेष असंयम दुःख भय आदि को उत्पन्न न करे तथा रहा है कि जो उत्कृष्ट श्रावक ग्यारह प्रतिमाओं के पालनकर्ता हैं वे मध्यम पात्र कहे उत्तम तप व स्वाध्याय की वृद्धि में सहकारी हो। जाते हैं। जो मति श्रुत सम्यक्ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं. अवधिज्ञान प्रगट होने की १६३

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320