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७ श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३२०-३२२ O N करना तो आवश्यक हैं इनको तो प्रतिदिन करना ही चाहिये परन्तु इनमें विवेक से को यह निश्चय हो जाता है कि उसका आत्मा वास्तव में शुद्ध है ध्रुव है, मात्र कर्म काम लेना आवश्यक है क्योंकि अनादि से प्रत्येक जीव के संसार परिभ्रमण का कलंक से मलिन हो रहा है, इस कर्ममल को धोने का उपाय निश्चय रत्नत्रय धर्म की कारण अपने स्वरूप का विस्मरण और यह मिथ्या मान्यतायें ही हैं, जिनके कारण साधना हाह, जहा अपन शुद्धात्मस्वरूपका श्रद्धान ज्ञान है, उसका ही आत्मानुभव चारगति चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ रहा है।
* कहते हैं और ऐसे अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना करने को ही सम्यक्चारित्र मिथ्या मान्यता और कुगुरु कुदेव आदि का सेवन ही संसार का कारण है. कहते हैं जिससे समस्त रागादिदोष एवं कर्मों का क्षय होता है। श्री जिनेन्द्र भगवान संयम तप दानादि तो बाहरी अनुकूलता-प्रतिकूलता मिलाते हैं। पूर्व में हमने यह
की कही हुई वे ही छह क्रियायें यथार्थ हैं जो शुद्धात्मा की तरफ ले जावें। जिन आगम शुभ कर्म किये होंगे इसलिये यह मनुष्य भव और सारे शुभ योग मिल गये परन्तु अब परम पूज्य आचार्य ऋषियों के द्वारा निर्मापित है, जिसका मूल स्रोत तीर्थंकर यदि सत्य वस्तु स्वरूप कोनजानें और ऐसे ही अज्ञान मिथ्यात्व सहित यह परम्परागत, केवलज्ञानी परमात्मा का उपदेश है। उस जिनवाणी में जिन शुद्ध षट्कर्मों के पालन मान्यतायें करते रहें तो इससे क्या लाभ होगा? पुनः संसार में ही भ्रमण करना करने की आज्ञा है उन्हें हर एक श्रद्धावान गृहस्थ श्रावक को पालना चाहिये। उनमें पड़ेगा; जबकि यह मनुष्य भव तो भव का अभाव करने, संसार के जन्म-मरण के यही अभिप्राय है कि राग-द्वेष, मोह जो बंध के कारण भाव हैं उनको दूर किया जावे चक्र से छूटने, मुक्ति को प्राप्त करने, आत्मा से परमात्मा बनने के लिये मिला है और वीतराग विज्ञान मय शुद्ध आत्मीक भाव को झलकाया जावे। जहाँ रंचमात्र भी इसमें हम धर्म के यथार्थ स्वरूप को समझें और हमारे शुद्ध षट्कर्म क्या हैं इन्हें समझें सांसारिक सुख की भावना न हो, ख्याति लाभ पूजादि की चाह न हो वहीं शुद्ध और उनका सही पालन करें तो हमारा यह मानव जीवन सफल होगा और तभी षटकर्म हैं। पद्मनंदि मुनि ने रत्नत्रय को मोक्षमार्ग कहकर शुद्ध षट्कर्म बताये हैंअपना आत्महित होगा।
सम्यग्दृग्बोधचारित्र त्रितयं धर्म उच्यते। तो वह शुद्ध षट्कर्म क्या हैं, उनका स्वरूप क्या है, जिनका पालन करने से
मुक्तेः पंथा स एव स्थान प्रमाण परिनिष्ठितः॥६-२॥ हमारा भला और मुक्ति की प्राप्ति होगी? ऐसा प्रश्न करने पर सदगुरू तारण स्वामी
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। शुद्ध षट्कर्म का स्वरूप जो जैनागम में जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है उसे बताते हैं -
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥६-७॥ शुद्ध षट् कर्म का स्वरूप
प्रमाण से निश्चय किया गया सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र ही धर्म कहा गया है षट् कर्म सुद्ध उक्तं च, सुद्ध समय सुद्धं धुवं ।
र यही मोक्षमार्ग है इसलिये गृहस्थों को नित्यप्रति देवपूजा, गुरू भक्ति, स्वाध्याय,
संयम, तप और दान इन छहकर्मों का पालन करना चाहिये। जिन उक्तं षद् कर्मच, केवलि दिस्टि संजुतं ॥ ३२०॥
यह शुद्ध षट्कर्म क्या हैं इनका संक्षेप में स्वरूप बताते हैं - अन्वयार्थ- (षट् कर्म सुद्ध उक्तं च) अब शुद्ध षट् कर्मों को कहा जाता है
देव देवाधिदेवं च, गुरु ग्रंथं मुक्तं सदा। (सुद्ध समय सुद्धं धुवं) जिसमें अपना शुद्धात्म स्वरूप जो शुद्ध ध्रुव है उसका लक्ष्य रहे (जिन उक्तं षट् कर्मच) जिनवाणी में जो षटकर्मों का स्वरूप बताया है (केवलि
स्वाध्याय सुद्धध्यायंते,संजर्म संजमं श्रुतं ॥ ३२१ ॥ दिस्टि संजुतं) जो केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा की परम्परा से जिनागम में प्रमाणित
तपं च अप्प सद्भावं, दानं पात्रस्य चिंतनं । कहे गये हैं।
षद् कर्म जिनं उक्तं, सार्थ सुख दिस्टितं ।। ३२२ ॥ विशेषार्थ- शुद्ध षट्कर्म वे ही हैं, जहाँ आत्मा की शुद्धता का अभिप्राय हो, अन्वयार्थ- (देव देवाधिदेवं च) देव, जो देवों के देव अरिहंत सिद्ध परमात्मा देवपूजादि प्रत्येक कार्य को करते हुए लक्ष्य परिणामों की शुद्धि का हो, शुद्धोपयोग हैं (गरुग्रंथं मक्तं सदा) गरु.जो समस्त पाप परिग्रह के बंधन से मुक्त हैं (स्वाध्याय की प्राप्ति का हो, अन्य कोई सांसारिक प्रयोजन जहाँ न हो। सम्यक्दृष्टि ज्ञानीजीव सुद्ध ध्यायते) स्वाध्याय , अपने शुद्धात्म स्वरूप को ध्याना (संजमं संजमं श्रुतं)
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