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ॐ श्री आवकाचार जी
वैराग्य की प्रधानता होती है। जो कोई सा भी भेष (लिंग) धारण कर उसके विपरीत आचरण करता है वह कुलिंगी है। धर्म के विपरीत आचरण करने से नरक जाता है ।
नशा, व्यसन, हिंसादि पाप करने वाला तो प्रगट में ही कुलिंगी है परंतु जो वीतरागी मार्ग का पथिक बनकर अपने पद के विपरीत आचरण करता है वह भी कुलिंगी नरकगामी है। इनकी मान्यता करने वाले अभव्य जीव ही होते हैं; क्योंकि इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति करने से अनन्त संसार में रुलना पड़ता है और नाना दुःख भोगना पड़ते हैं।
भव्य जीव किसे कहते हैं ? इसे भावपाहुड़ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंमुयइ पडि अभव्वो सुठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं । गुडदुद्ध पि पिवता ण पण्णया णिव्विसा होति ॥ १३८ ॥ अभव्य जीव भले प्रकार जिन धर्म को सुनकर भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है। यहाँ दृष्टान्त है कि सर्प, गुड़ सहित दूध को पीते रहने पर भी विष रहित नहीं होता। इसी प्रकार अभव्य जीव अनेकान्त तत्व स्वरूप को सुनते हुए भी मिथ्यात्व स्वरूप भाव नहीं बदलता । मिथ्यात्व से जिसकी बुद्धि, दुर्बुद्धि हो रही है उसे सत्य वस्तु स्वरूप नहीं रुचता, एकान्त पक्ष से अपनी मनमानी करता है, यह अभव्य जीव के चिन्ह हैं। यथार्थ तो सर्वज्ञ ही जानते हैं।
कुगुरु की संगति से और अपनी ऐसी दशा होने से यह जीव अनन्त संसार में रुलता है और नाना प्रकार के दुःख भोगता है; इसलिये इन कुगुरु और कुलिंगियों से सावधान रहकर अपना आत्महित करने के लिये विवेक से काम लेना चाहिये । कुगुरु के जाल में फंसा बहिरात्मा जीव अधर्म का सेवन करता है; क्योंकि कुगुरु अधर्म का ही पोषण करते हैं और उसका ही उपदेश देते हैं।
अब अधर्म किसे कहते हैं ? अधर्म क्या है ? इसके स्वरूप का वर्णन करते हैं१. आर्त- रौद्र ध्यान में लगे रहना यही सबसे बड़ा अधर्म है
अधर्म लक्षणस्चैव, अनृतं अचेतं श्रुतं ।
उत्साहं सहितो हिंसा, हिंसानंदी जिनागमं ।। ९५ ।। हिंसानंदी अनृतानंदी, स्तेयानंद अबंभयं । रौद्र ध्यानं च संपूर्न, अधर्म दुष दारुनं ।। ९६ ।।
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गाथा ९५.९७
आरति रौद्र संजुक्तं, ते धर्म अधर्म संजुतं । रागादि मिश्र संपूर्न, अधर्मं संसार भाजनं ।। ९७ ॥
अन्वयार्थ (अधर्मं लक्षणस्चैव) अधर्म का लक्षण बताते हैं (अनृतं अचेतं श्रुतं) अप्रामाणिक असत्य शास्त्रों का पढ़ना सुनना (उत्साहं सहितो हिंसा) उत्साह सहित हिंसादि पाप करना (हिंसानंदी जिनागमं ) हिंसा में आनंद मानना ही जिनागम में अधर्म बताया गया है।
(हिंसानंदी अनृतानंदी) हिंसा में आनंद मानना, झूठ बोलने में आनंद मानना (स्तेयानंद अबंभयं) चोरी करने में आनंद मानना और अब्रह्म कुशील सेवन में आनंद मानना (रौद्र ध्यानं च संपून) यह सब रौद्र ध्यान हैं (अधर्मं दुष दारुनं) यही सबसे बड़ा अधर्म दारुण दुःख देने वाला है।
(आरति रौद्र संजुक्तं ) जो जीव आर्त-रौद्र ध्यानों में लीन रहते हैं, हमेशा इन्हीं भावों में बहते रहते हैं ( ते अधर्म संजुतं) वे जीव आत्मा अधर्म में लीन रहते हैं (रागादि मिश्र संपून) इससे राग-द्वेष मोह आदि मलों में पूर्णतया डूबे रहते हैं (अधर्म संसार भाजनं ) यही अधर्म संसार में रुलाने वाला संसार का पात्र बनाने वाला है।
बिशेषार्थ - यहाँ अधर्म का लक्षण बताया जा रहा है कि अधर्म किसे कहते हैं ? जो धारण किया जाता है, जीवन के आचरण में आता है उसे धर्म कहते हैं। सत् वस्तु स्वरूप की धारणा ही सत्धर्म है। सत्धर्म की धारणा से जीवन में सुख शान्ति आनंद की उपलब्धि होती है। असत् धर्म कुधर्म या अधर्म की धारणा से जीवन दुःखमय, अशान्त, भय, चिंता से भरा हुआ होता है। जगत का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। संसार में कहीं सुख नहीं है क्योंकि पर वस्तु, पुद्गल आदि में सुख की मान्यता ही अज्ञानता अधर्म है।
सुख स्वभावी तो यह जीव आत्मा स्वयं है परन्तु अपने निज स्वभाव को भूला हुआ पर में सुख की कल्पना करता है। जैसे- कुत्ता हड्डी चूसता है और उसमें रसादि सुख की कल्पना करता है। स्वयं के मुख से निकलते खून को हड्डी में से निकलता हुआ मानता है वह अज्ञानी पशु है। इसी प्रकार प्रत्येक मानव भी पर में सुख की कल्पना करता हुआ पर में लगा हुआ है। धनादि में सुख मानता है। शरीर के विषय भोगों में सुख मानता है और उसके लिये नाना प्रकार के कुकर्मों में हिंसादि पापों में लगा हुआ स्वयं दुःखी रहता है यही अधर्म है।