________________
04 श्री आपकाचार जी
गाथा-१४५.१५. Oo आठ मद-जातिमद, कुलमद, रूपमद, अधिकारमद, ज्ञानमद, तपमद, बलमद और शिल्प कला, चित्रकारी, संगीत, यंत्र, विद्या आदि का काम जानना और इसमें हमेशा शिल्पमद होते हैं।
फूले रहना शिल्प मद है। १.जातिमद- माता पक्ष के अहंकार को जातिमद कहते हैं। माता के र मान कषाय से उत्पन्न जो मद मात्सर्य (ईर्ष्या) आदि समस्त विकल्पों का कुटुम्बीजनों में यह मान करना कि हमारे मामा नाना आदि ऐसे ऐसे हैं। उनके * समूह है, उसके त्यागपूर्वक जो ममकार और अहंकार से रहित शुद्ध आत्मा में भावना धनादि बल को अपना मानकर अहंकार करना जाति मद है।
है,वही वीतराग सम्यकदृष्टियों के आठ मदों का त्याग हैं। ममकार और अहंकार के २.कुलमद-पिता पक्ष के अहंकार को कुलमद कहते हैं। पिता के कुटुम्बीजनों लक्षण को कहते हैं-कर्मों से उत्पन्न जो देह, पुत्र-स्त्री आदि हैं, इनमें यह मेरा में दादा, परदादा आदि के धन बल ऐश्वर्य आदि का अहंकार करना कुल मद है। शरीर है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकार की जो बुद्धि है वह ममकार है और उन शरीर
३.रूपमद - शरीर की सुन्दरता आँख,कान,नाक, मुँह आदि की विशेषता , आदि में अपनी आत्मा से भेद न मानकर जो मैं गोरे वर्ण का हूँ, मोटे शरीर का हूँ, सहित सुन्दर रूप गोरारंग, स्वस्थ शरीर आदि का अहंकार करना रूप मद है। राजा हूँ आदि इस प्रकार मानना सो अहंकार है।
४.अधिकार मद-प्रभुताई, बड़प्पन, हुकूमत चलते हुए यह मानना कि मैं शरीर आदि ही मैं हूँ इस मिथ्यात्व से अहंकार मद होता है। यह शरीरादि मेरे जो चाहूँ सो कर सकता हूँ। मैं सबसे सयाना, सबसे बड़ा,घर का, समाज का हैं, यह मोह-ममत्व है इससे पर के प्रति राग आसक्तता रहती है। मुखिया,पदाधिकारी,मंत्री आदि पद का अहंकार करना अधिकार मद है।
मिथ्यात्व से जन्म-मरण होता है, मोह-राग से कर्मबन्ध होता है। ५.ज्ञान मद-यह बड़ा खतरनाक होता है। कोराज्ञान, बाहरी विद्या शास्त्रों जब तक अपने सत्स्वरूप शुद्ध तत्व, निजशखात्मा का श्रद्धान अनुभूति नहीं को पढ़ने लिखने आदि सांसारिक बातों का ज्ञान होने पर क्षायोपशमिक ज्ञान का होती, तब तक यह अहंकार-ममकार तो होते ही हैं। मिथ्यात्व अज्ञान दशा अहंकार करना, अपने को होशियार चतुर मानना और सबको मूर्ख, अज्ञानी समझनाS में कुज्ञान सहित कितने ही तप करो, अनेक शास्त्र पढ़ो पर इससे तप मद, ज्ञानमद है।
ईशान मद ही बढ़ता है, आत्म कल्याण नहीं होता। ६. तप मद- व्रत, नियम, संयम, तप, उपवास आदि कठोर साधना इन आठ मदों का स्वरूप प्रशमरति प्रकरण में आचार्य उमास्वामी कहते हैंकरना,परीषह सहना, साधु हो जाना, नाना प्रकार के शारीरिक कष्ट सहना, अनेक संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को अपने-अपने कर्म के उदय से कभी प्रकार के तप करना और अपने आपको बड़ा तपस्वी,साधु,सबसे श्रेष्ठ मानना।तप ब्राह्मण जाति, कभी चाण्डाल की जाति और कभी क्षत्रिय आदि की जाति होती के मद में चाहे जिससे चाहे जो कह देना, अपने आपको धर्मात्मा महात्मा मानना, है। कोई जाति सर्वदा नहीं रहती यही कहते हैं। लोगों की प्रभावना, प्रसिद्धि की चाह होना और तप से कोई ऋद्धि-सिद्धि हो जाये.
ज्ञात्वा भव परिवर्ते जातीनां कोटिशत सहनेषु । उसका दुरुपयोग करना, क्रोधित हो जाना, अपने सामने किसी को कुछ न समझना
हीनोत्तम मध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥८१॥ तपमद है।
यह जीव नारकी होकर तिर्यंच योनि अथवा मनुष्य योनि में जन्म लेता है; ७.बल मद-शारीरिक स्वस्थता, पहलवान, हृष्ट-पुष्ट होने पर हमेशा अकड़े पुन: एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति में उत्पन्न र रहना, अकड़कर चलना, निर्बलों को सताना तथा साथी, समर्थकों के बल से 5 होता है। उसमें भी एकेन्द्रियों में पृथ्वी काय के शर्करा बालुका आदि बहुत से भेद 9
अन्याय,अत्याचार करना तथा धनादि होने पर अनैतिक कार्य करना, सबको अपने हैं। इसी प्रकार जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी जितनी योनियाँ हैं, उतनी से छोटा हीन समझना बल मद है।
ही लाख जातियाँ हैं। देवगति में भी जितनी योनियाँ हैं, उतनी ही लाख जातियाँ८.शिल्प मद- हर काम में होशियार होने पर अकड़े रहना, मैं सब कुछ हैं। देवगति में भी ऐसा ही जानना चाहिये इसलिये संसार को चौरासी लाख योनियों जानता हूँ, सब काम कर लेता हूँ, मेरे मुकाबले कोई भी कुछ भी नहीं जानता। वाला कहा गया है। इस संसार में उत्पन्न हुआ जीव जघन्य, मध्यम और उत्तम कुलों
९४