Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 169
________________ श्री श्रावकाचार जी गाथा-२२४ Oo अनंतयं) फिर अनन्तगुण प्रगट होने में कोई बाधा नहीं रहती। दिखने लगती है उसे (उदयं त्रि भुवनत्रयं) तीसरा ज्ञान नेत्र प्रगट हो जाता है विशेषार्थ-जिसके हृदय में सम्यक्त्व का उदय होकर शाश्वत स्थिर हो जाता (लोकालोक त्रिलोकं च) उसमें लोकालोक और त्रिलोक ऐसे दिखाई देने लगते हैं। है अर्थात् क्षायिक सम्यक्दृष्टि हो जाता है उसके सारे कर्म क्षय होने लगते हैं तथा ५ जैसे (आलबाले मुषं जथा) निर्मल जल में मुख दिखाई देता है अथवा बालक के क्षायिक सम्यकदष्टि को कभी भी अपने स्वरूप की विस्मति नहीं होती यह सम्यक्त्व* हाथ में रखे दर्पण में मुख दिखाई देता है। कभी विलाता नहीं है। क्षायिक सम्यक्दर्शन का प्रकाश होते ही इस आत्मा के भीतर विशेषार्थ- यहाँ सम्यक्त्व की विशेषता बताई जा रही है कि जिसे निरन्तर गुणों का विकास होने लगता है। यह आत्मा स्वभाव से अनन्त गुणों का स्वामी है। 5 अपना शद्धात्म स्वरूप दिखने लगा, उसको तीन लोक में वंदनीय तीसरा ज्ञान नेत्र घातिया कर्मों के आवरण के कारण वे गुण प्रगट नहीं है। क्षायिक सम्यक्दर्शन के प्रगट होजाता है। जिसमें लोकालोक और तीन लोक ऐसे दिखने लगते हैं, जैसे निर्मल होने पर वह अधिक काल छद्मस्थ नहीं रहता, सिद्ध परमात्मा हो जाता है या बीच में जल में मख दिखाई देता है अथवा हाथ में रखे दर्पण में मुख दिखाई देता है। एक भव देव आदि का लेकर पुन: मनुष्य होकर केवलज्ञानी अरिहंत सिद्ध परमात्मा O यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह तीसरा ज्ञान नेत्र क्या है? क्या केवलज्ञान है हो जाता है क्योंकि जब तक क्षायिक सम्यक्त्व न हो तब तक कोई क्षपक श्रेणी नहीं क्योंकि केवलज्ञान में ही लोकालोक और तीनों लोक प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं तो क्या मांड सकता, क्षपक श्रेणी के बगैर कोई अरिहन्त सिद्ध नहीं होता तो यहाँ तारण अव्रत दशा में भी केवलज्ञान हो सकता है? स्वामी यही कह रहे हैं कि जिसे क्षायिक सम्यक्दर्शन हो जाता है वह गुणों का नाथ इसका समाधान करते हैं कि यह तीसरा ज्ञान नेत्र विवेक या सम्यकज्ञान है हो जाता है फिर उसके अनन्त गुण प्रगट होने में कोई बाधा नहीं रहती। क्षायिक & इसमें भी लोकालोक का स्वरूप प्रत्यक्ष जानने में आने लगता है तथा जिसको सम्यक्दृष्टि उसी भव या नियम से तीसरे भव में मोक्ष जाता ही है। । सम्यक्दर्शन,सम्यक्ज्ञान होता है उसे नियम से केवलज्ञान होगा ही। अव्रत दशा में अब यहाँ प्रश्न आता है कि संसारी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव को क्या एकदम विवेक ही वह तीसरा ज्ञान नेत्र है जिसके प्रगट होने पर जीव को संसार का वास्तविक क्षायिक सम्यकदर्शन हो सकता है या पहले उपशम क्षयोपशम आदि होते हुए क्षायिक स्वरूप समझ में आता है और वह इससे छूटने के लिये छटपटाने लगता है। होता है? तथा अव्रती को भी क्या क्षायिक सम्यक्दर्शन हो सकता है? S यहाँ तक अन्तरात्मा जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में उसका समाधान करते हैं कि यह कोई प्रतिबन्ध नहीं है, यह तो जीव की से पहली सम्यक्त्व क्रिया का वर्णन गाथा क्र.२०२ से २२४ तक किया गया। अब अपनी पात्रता की बात है, अव्रती को भी क्षायिक सम्यक्दर्शन हो सकता है। इतना इसको देख. सन.समझकर हम अपना निर्णय करें कि क्या हम भी सम्यकदृष्टि हैं, अवश्य है कि क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी के सान्निध्य में ही होता है। समान्यत: अगर हैं तो आगे की क्रियायें तो सहजता से जीवन में आवेंगी ही, न आवें,न होवें उपशम क्षयोपशम सम्यक्त्व तो कभी भी किसी को हो सकते हैं। वैसे करणानुयोग ऐसा हो ही नहीं सकता; क्योंकि हमारा लक्ष्य भी संसार से मुक्त होना है और अपने की परिभाषा में कर्मों के उपशम से होने वाले सम्यकदर्शन को उपशम सम्यक्त्व आनंद परमानंदमयी परमात्म पद को पाना है। कहते हैं, कर्मों के क्षयोपशम से होने वाले सम्यक्दर्शन को क्षयोपशम सम्यक्त्व यहाँ कोई प्रश्न करे कि चाहते तो हम भी यही हैं परंतु ऐसा आत्मा का सत्श्रद्धान कहते हैं और कर्मों के क्षय से होने वाले सम्यक्दर्शन को क्षायिक सम्यक्त्व कहते होता क्यों नहीं है? इसके लिये क्या करना चाहिये? ए हैं। अब यह जीव की पात्रता होनहार काललब्धि आदि पर आधारित है। इसका समाधान करते हैं कि भाई! इसमें तो सबसे पहले हमें अपने आपको 2 अंत में सम्यक्त्व की विशेषता बताते हुए सद्गुरू अगली गाथा कहते हैं देखना होगा कि वास्तव में हम चाहते क्या हैं? हमारी रुचि चाह, लगन किस ओर संमिक्तं दिस्टते जेन , उदयं त्रिभुवनत्रयं । की है? क्योंकि मुँह में नमक की डली रखे रहें और मिश्री का स्वाद चाहें तो यह तो लोकालोक त्रिलोकं च, आलबाले मुहं जथा ।। २२४॥ हो ही नहीं सकता। रुचि अनुगामी पुरुषार्थ होता है और फिर आत्मा तो अपना निज अन्वयार्थ- (संमिक्तं दिस्टते जेन) जिसको सम्यक्त्व अर्थात् निज शुद्धात्मा ... स्वभाव ही है। इसके लिये भेदज्ञान पूर्वक तत्व का निर्णय करें और भीतर से इसके १४८

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