Book Title: Shravakachar
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Gokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur

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Page 149
________________ श्री आवकाचार जी साधना से ही मुक्ति मिलती है। निज स्वभाव साधना से ही अर्थात् उसी का ज्ञान, उसी का ध्यान, उसी में रमणता, उसी में लीनता, उसी में स्थिरता होने पर साधु पद हो जाता है। ४८ मिनिट अपने स्वभाव में रहने पर केवलज्ञान अरिहन्त पद हो जाता है। और अपने परमानंद स्वरूप वीतराग निर्विकल्प दशा में रहने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं, इससे मुक्ति सिद्ध पद हो जाता है। अब यह बताओ कि यहाँ किसका क्या किया जाये ? क्योंकि पर को जानने मानने और पर में लगे रहने के कारण तो अनादिकाल बीत गया और कभी इस जीव को एक समय के लिये सुख साता नहीं • मिली। संसार में सब व्यवहार निभाया, खूब पुण्य करके स्वर्ग गये, पाप करके नरक गये। सब देव गुरू धर्म की आराधना वंदना भक्ति की, प्रत्यक्ष समवशरण में भगवान के सामने रहे परन्तु हुआ क्या ? जब तक भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्ध स्वभाव को नहीं जानते निज शुद्धात्मानुभूति नहीं होती, तब तक तीन काल भी भला होने वाला नहीं है। वर्तमान में पुनः मनुष्य भव और यह सब शुभयोग मिले हैं। सच्चे देव गुरू शास्त्र, धर्म का स्वरूप और मुक्ति का मार्ग क्या बता रहे हैं, उसे जानें- मानें उस ओर का पुरुषार्थ करें तो अपना भला होवे । देव गुरू धर्म की आराधना, वन्दना, भक्ति से क्या होने वाला है ? जब सच्चे देव गुरू धर्म वीतरागी हैं, उन्हें कुछ चाहिये ही नहीं तो फिर क्या प्रयोजन है ? और जब जैन दर्शन यह कहता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करता ही नहीं है, कर ही नहीं सकता। एक पर्याय दूसरी पर्याय का कुछ नहीं कर सकती और एकएक समय की पर्याय क्रमबद्ध निश्चित है, उस पर्याय को इधर से उधर नहीं किया जा सकता तथा जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा उसे कोई भी मनुष्य क्या, भगवान भी टाल फेर बदल सकता नहीं है, तो फिर अब क्या करने का शेष रहा ? जिसे इन सब बातों का ज्ञान और निर्णय स्वीकार होता है, वह ज्ञानी सम्यकदृष्टि अन्तरात्मा होता है और वह ऐसी साधना करता है। संसारी जीव व्यवहार में क्या करते हैं, उसे इससे मतलब नहीं है, वह तो अपनी आत्म साधना में रत रहता है, यही उसकी विशेषता है छह अनायतन- कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके उपासकों की प्रशंसा सम्यक्दृष्टि नहीं करता। तीन मूढ़ता - देवमूढ़ता, लोक मूढ़ता, पाषंडी मूढ़ता (गुरु मूढ़ता ) इन सबसे सम्यकदृष्टि दूर रहता है। विवेक और निर्भयता से काम लेता है। जिसमें इन पच्चीस दोषों में से कोई से भी दोष दिखाई देते हैं, वह सम्यक्त्व से हीन होता है फिर वह चाहे व्यवहार में कितना ही कुशल होवे, ऊपर से सब कुछ आत्मा ही इष्ट और उपादेय है जो इसकी साधना आराधना में रत रहते 5 अच्छा करता हो परन्तु जहाँ श्रद्धान मान्यता में ही अंतर होवे, फिर वहाँ क्या है ? हैं, वह संसार से पार होते हैं। वह तो हमेशा संसार में ही भ्रमण करेगा। सम्यक्दर्शन संसार की मौत है फिर वह संसार में नहीं रह सकता। इसलिये तारण स्वामी इस श्रावकाचार ग्रन्थ में सबसे पहले सम्यक्त्व की बात करते हैं। अव्रत सम्यक्दृष्टि के गुण लक्षण विशेषता सब बताते हैं। इन सबको देव देवाधिदेव - शुद्धात्मा। वीतरागी निर्ग्रन्थ गुरू- अन्तरात्मा । धर्म-शुद्ध स्वभाव, तो सम्यकदृष्टि ज्ञानी नित्य इसी की साधना करता है और कुछ नहीं करता । जगत का सब परिणमन अपने आप होता है क्योंकि जब जैसा जो कुछ होना है वह Y YEAR GEASA YA. १२८ गाथा-१९३ सब निश्चित है, ऐसा जो स्वीकार करता है वही सम्यकदृष्टि है इसी बात को आगे कहते हैं संमिक्तं जस्य जीवस्य, दोषं तस्य न पस्यते । न तु संमिक्त हीनस्य, संसारे भ्रमनं सदा ।। १९३ ।। अन्वयार्थ (संमिक्तं जस्य जीवस्य) जिस जीव को सम्यक्त्व हो गया है (दोषं तस्य न पस्यते) उसमें शंकादि पच्चीस दोष नहीं दिखते ( न तु संमिक्त हीनस्य) यदि कोई दोष दिखाई देते हैं, तो वह सम्यक्त्व से हीन है (संसारे भ्रमनं सदा) वह हमेशा संसार में ही भ्रमण करेगा। विशेषार्थ यहाँ अन्तरात्मा सम्यकदृष्टि की विशेषता बताई जा रही है कि जिस जीव को सम्यक्त्व होता है उसमें कोई दोष दिखाई नहीं देते। सम्यक्त्व के पच्चीस दोष होते हैं- शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढ़ता। इनका वर्णन गाथा क्र. २९ में आ गया है, यहाँ संक्षेप में कहते हैं शंकादि आठ दोष- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना । सम्यक्दृष्टि इन दोषों से रहित होता है। आठ मद- ज्ञानमद, पूजा मद, कुल मद, जाति मद, बल मद, ऋद्धि मद, तप मद, रूप मद । संसारी पर वस्तु और शरीरादि संयोग का घमंड करना मद है। यह सम्यकदृष्टि को होते ही नहीं है।

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