________________
७७
156
७० श्री आवकाचार जी
शिकारी हैं क्योंकि केवल पशु का शिकार करने वाला ही पारधी नहीं है; परंतु जो मानव, मानवों का शिकार करते हैं, दूसरों का नाश करके दूसरों को परस्पर मतभेद कराकर मुकदमा आदि लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं वे भी शिकार करने वाले पापी हैं।
SYARAT YAAN FANART YEAR.
जो दूसरों को अपना विश्वास देकर धोखा देता है। मन से कुटिल, वचन से कुटिल और शरीर की क्रिया से भी कुटिल रूप आचरण करता है ऐसा विश्वासघाती, मायाचारी पुरुष भी शिकारी ही है। शिकारी तो पशुओं को छिपकर कष्ट देकर मारता है; किन्तु यह लोगों को विश्वास दिलाकर ठगता है। वचनों में विष भरा होता है, ऊपर से मीठा बोलता है। भोले जीवों को अपने फंदे में फंसाकर ठगने का सदा विचार किया करता है तथा अपने शरीर से ऐसी क्रियायें करता है जिनका हेतु मायाचार है । कोई-कोई प्राणी पर को ठगने के लिये त्यागी, साधु, शास्त्री, पंडित, विद्वान का रूप बना लेते हैं तथा बाहरी जप, तप, पूजा, पाठ आदि क्रिया अपने को धर्मात्मापने का विश्वास जमाने के लिये करते हैं; किन्तु भीतर ठगने का भाव होता है। कुटिल मन, वचन, काय की प्रवृत्ति अनन्त दोषों को उत्पन्न करने वाली होती है। अल्प क्षणिक धनादि के लिये मायाचार करके दूसरों को ठगना शिकारी के दोष ही संयुक्त होना है।
जो जीव धर्म मार्ग पर चलना चाहते हैं, अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं, कुगुरु उन्हें विपरीत मार्ग बताकर अधर्म-कुधर्म में फंसा देते हैं। मुक्ति का मार्ग तो एक ही है- 'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' निज शुद्धात्मानुभूति करो, अपने शुद्ध स्वभाव का ज्ञान करो और ध्यान लगाओ यही मुक्ति का मार्ग है। भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। ऐसे वीतराग विज्ञानमय मार्ग से छुड़ाकर कुगुरु राग-द्वेषपूर्ण कुमार्ग में लगा देते हैं। कुदेव - अदेव की पूजा आराधना, बाह्य क्रियाकांड, पूजन-भजन, खान-पान आदि शारीरिक क्रियाओं को धर्म बता देते हैं। कुगुरु, कुशास्त्र के जाल में फंसा देते हैं। देखो इस शास्त्र में यह कहा है, 5 इस शास्त्र में यह कहा है, इस आचार्य ने यह कहा है, इस आचार्य ने यह कहा है। ऐसा विश्वास दिलाकर कुमार्ग में लगा हैं। ऐसे मिथ्यामार्ग के प्रचारक भी पारधी के समान हैं। राग-द्वेष वर्धक मार्ग कुमार्ग है। अपना स्वार्थ साधने के लिये, भक्तों से धन लेने के लिये अपने विषयों की कामना की पूर्ति के लिये, पाप-पुण्य को धर्म
८४
गाथा- १२४-१२८
बताकर कुमार्ग का उपदेश देकर पत्थर की नौका का काम करते हैं। स्वयं भी संसार समुद्र में डूबते हैं और दूसरों को भी डुबाते हैं। धन की तृष्णा मानव को अंधा बना देती है। इसके लिये मनुष्य क्या-क्या कुकर्म नहीं करते, जो ऐसा मार्ग बताते हैं, वे घोर पाप का बंध करते हैं और निगोद में, कीटादि विकलत्रय में, नरक आदि दुर्गतियों में जन्म-मरण के दारुण दुःख भोगते हैं, ऐसे मानव भी पारधी हैं।
संसार में शिकारी का विश्वास करने पर उसी जन्म में मरना पड़ता है परन्तु जो जीव ऐसे अधर्म और अधर्मी का विश्वास करते हैं, ऐसे शिकारी के जाल में फंसते हैं, उन्हें जन्म-जन्म में मरना पड़ता है। मिथ्यात्व के समान जीव का अहितकर्ता कोई नहीं है। जो जीवों को ग्रहीत मिथ्यात्व अदेवादि मूर्ति पूजा और बाह्य क्रियाकांड को धर्म बताकर फंसाते हैं, कषाय के वातावरण को बढ़ाते हैं, आकुलता मय जीवन बनाते हैं और शुभोपयोग को धर्म बताते हैं वह कुगुरु रूपी पारधी मिथ्यात्व की कीचड़ में फंसकर संसार में गोते लगाते रहेंगे पुनः पुनः जन्म-मरण करेंगे।
इसी बात को और आगे कहते हैं
मुक्ति पंथं तत्व सार्धं च, लोकालोकं च लोकितं ।
पंथ भ्रस्ट अचेतस्य, विस्वास जन्म जन्मयं ॥ १२४ ॥ पारधी पासि जन्मस्य, अधर्मं पासि अनंतयं ।
जन्म जन्मं च दुस्टं च प्राप्तं दुष दारुनं ।। १२५ ।। जिन लिंगी तत्व वेदंते, सुद्ध तत्व प्रकासकं । कुलिंगी तत्व लोपंते, परपंचं धर्म उच्यते ॥ १२६ ॥ लिंगी मूढ दिस्टी च, कुलिंगी विस्वासं कृतं । दुरबुद्धि पासि बंधंते, संसारे दुष दारुनं ।। १२७ ।। पारधी पासि मुक्तस्य, जिन उक्तं सार्धं धुवं ।
सुद्ध तत्वं च सार्धं च, अप्प सद्भाव चिन्हितं ॥ १२८ ॥ अन्वयार्थ - (मुक्ति पंथं तत्व सार्धं च) मुक्ति का मार्ग तो तत्व श्रद्धान करना
है अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति ही मोक्षमार्ग है। केवलज्ञानमयी ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी