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Our श्री बाचकाचार जी
गाचा-२८,२९ C OOO है; जबकि संसार में किसी का नाम अमर हुआ ही नहीं,जो धर्म मार्ग पर चले जिन्होंने किया जाता है यही सब देव मूढता है। आत्म कल्याण किया, भगवान बने वही अमर हो गये, शेष सब तो मरते ही फिर रहे ३. पाषंडी मूढ़ता- ढोंगी, छल छिद्र करने वाले पाप, कषायों में प्रवृत्त हैं। इस प्रकार यह जीव इन कषायों के वशीभूत लोक मूढता आदि में फंस जाता है, .. पाषंडियों की मान्यता,पूजा,वन्दना करना पाषंडी मूढता है । धोखा देने वाले जिससे अनन्त संसार में ही परिभ्रमण करता है।
ॐ मायाचारी करने वाले, धनादि ठगने वाले, यह सब पाषंडी होते हैं, इनकी संगति लोक मूढता आदि क्या है, उनका स्वरूप कहते हैं
करना, मान्यता करना, पतन का कारण है। मुखों की संगति और मूर्खता दोनों ही लोक मूह रतो जेन, देव मूढस्य दिस्टिते।
दुर्गति के कारण हैं। जो जीव इन तीन मूढताओं में फंसे होते हैं, वह निगोद ही जाते पाषंडी मूढ़ संगानि ,निगोयं पतितं पुनः ।। २८॥
४ हैं; क्योंकि सत्पुरुष ज्ञानी, साधुओं का सत्संग ही जीव को कल्याणकारी है और
कुसंग ही पतन का कारण है। संसार भ्रमण की कारणभूत यह तीन मूढतायें हैं। जो अन्वयार्थ-(लोक मूढ रतो जेन) जो जीव लोक मूढता में रत हैं (देव मूढस्य ९ जीव इन मिथ्यात्व कषाय मूढता आदि में फँसे हैं, वह संसार में नरक निगोद आदि दिस्टिते) वह देव मूढताओं को भी देखते हैं, उनमें ही लगे रहते हैं (पाषंडी मूढ के ही दुःख भोगते हैं। संसार भ्रमण के कारण पच्चीस दोष और हैं जिनका वर्णन संगानि) पाषंडी मूढों की संगति करके, पाषंडी मूढताओं के संग लगकर (निगोयं
3 करते हैंपतितं पुन:) पुन: निगोद में चले जाते हैं।
अनायतन मद अस्टंच,संकादि अस्ट दूषनं । विशेषार्थ- मूढता तीन होती हैं- लोकमूढता, देवमूढता, पाषंडी मूढता।
मलं संपूर्न जानते, सेवनं दुषदारुनं ॥ २९॥ मूढता का अर्थ मूर्खता है, यहाँ पहले इनका स्वरूप बताते हैं। १.लोक मूढता- संसारी लोगों की देखादेखी विवेक रहित क्रिया आचरण
अन्वयार्थ- (अनायतन मद अस्टं च) छह अनायतन और आठ मद (संकादि व्यवहार करना लोकमूढता है। जैसे-व्यवहार बाह्य क्रिया कांड को ही धर्म मानना.१ अस्टदूषन) शंका आदि आठ दोष (मलं संपूर्न जानते) तीन मूढताओं सहित पच्चीस नदी आदि में स्नान करने को धर्म मानना, इसकी उसकी पूजा मान्यता करना धर्म मला को सम्यक्दृष्टि जानता है (सेवनं दुष दारुन) कि इनके सेवन करने से ही है ऐसा मानना। लक्ष्मी जी की पूजा करने से धन मिलता है, दकान. दरवाजे आदिदारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं। के पैर पड़ना, चाहे जहाँ, चाहे जिसके सामने अपना मस्तक झुका देना। धन यश विशेषार्थ- यहाँ संसार भ्रमण के कारणों का वर्णन चल रहा है, सम्यकदृष्टि आदि की कामना से लौकिक रूढ़ियों को मानना और अपने वंश, समाज परम्परा में इन सबको जानता है और इन सबसे बचता है। यहाँ पच्चीस मल क्या हैं? इनका चली आ रही मान्यता, रूढ़ियों को बिना विवेक के मानना यह सब लोक मूढता है। वर्णन करते हैं-शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन, तीन मूढता - यह
२. देव मूढता- किसी भी लौकिक कामना, धन, यश, जय, पुत्रादि की पच्चीस मल हैं। भावना से पूजा, पाठ, स्तुति, वंदना आदि करना देव मूढ़ता है। देव, कुदेव, अदेव * शंकादि आठ दोष- इनका संक्षेप में स्वरूप लिखते हैं। का कोई विवेक विचार न करते हुए, सबकी मान्यता करना। सच्चे देव तो सर्वज्ञ. १.शंका- धर्म में शंका करना (मैं जीव आत्मा हूँ या शरीर हूँ) तत्वों में वीतरागी, हितोपदेशी होते हैं। वह न तो किसी को कुछ देते हैं,न किसी से कुछ लेते श्रद्धान न होना (किसने देखा है, ऐसा है अथवा नहीं) शंका करने वाला हमेशा ।
हैं,वह तो वास्तविक धर्म का स्वरूप, आत्म कल्याण की बात मुक्ति का मार्ग बताते " सप्त भयों से भयभीत रहता है। २ हैं,उनका तो सम्मान बहुमान ही किया जाता है। किसी प्रकार की कोई भी कल्पना १. इह लोक भय- इस लोक में मेरा क्या होगा, अंतिम समय कौन मेरी सेवा, रक्षा र करके किसी भी प्रकार के आकार आदि स्वरूपकी पूजा आदि करना सब देव मूढता करेंगे, मेरी बुराई, हानि आदिन होवे। है; क्योंकि पूजा अर्थात् कुछ भी चढ़ाना, किसी न किसी कामना के अभिप्राय से ही २.पर लोक भय-पर लोक में नरक, पशुगति न चला जाऊँ, वहाँ मेरा क्या होगा?
... ३. वेदना भय-कोई बीमारी आदि हो जायेगी तो क्या करूंगा?