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Soश्री श्रावकाचार जी
गाथा-
३०७ ४. अरक्षा भय- मेरी रक्षा सेवा संभाल कौन करेगा?
८.अप्रभावना-धर्म कार्यों में बाधा डालना. आलोचना करना, किसी को ५. अगुप्ति भय- मेरा धनादि कोई न ले जाये वरना फिर क्या करूँगा?
आगे न बढ़ने न देना, पुरानी रूढ़ियाँ, मुखियापन बताना, किसी भी प्रकार धर्म ६. मरण भय- मैं मर न जाऊँ ऐसा हमेशा भय बना रहना।
प्रभावना न होने देना। जबकि सम्यक्दृष्टि,धर्म प्रभावना में पूरे तन-मन-धन से ७. अकस्मात् भय- कोई अकस्मात् आपत्ति मेरे ऊपर न आ जाये? मिथ्यादृष्टि सहयोग करता है। प्रचार-प्रसार में आगे रहता है, धर्मी जीवों को आगे बढ़ाता है, को यह शंका और सात भय हमेशा लगे रहते हैं, इसलिये वह हमेशा भयभीत हर प्रकार से धर्म प्रभावना करता ही रहता है, वह प्रभावना अंग का पालन करता है। दुःखी रहता है। सम्यक्दृष्टि को कोई शंका भय नहीं होते वह नि:शंकित, निर्भय आठ मद- १.जाति मद- मैं उच्च जाति का हूँ। रहता है।
२.कुल मद- मेरा कुटुम्ब,खानदान बहुत बड़ा है, मेरे कुल में ऐसे-ऐसे लोग २.कांक्षा- भोगों की कामना इच्छा, ऐसा और कर लेता, ऐसा और भोग , हो गये। लेता, हमेशा इन्हीं विचारों में आकुलित रहता है। सम्यक्दृष्टि को संसारी भोग तो ३. बल मद- मैं बड़ा बलशाली हूँ मेरा मुकाबला कौन कर सकता है। विषधर जैसे लगते हैं, वह नि:कांक्षित रहता है।
४. धन मद- मेरे पास इतना धन है, चाहे जिसको ठिकाने लगवा दूँगा। ३. विचिकित्सा - मिथ्यादृष्टि सबसे घृणा करता है, उसे कोई भी कुछ भी ५.तप मद- मैं इतना बड़ा तपस्वी हूँ मैंने इतना घोर तप किया है। अच्छा नहीं लगता । सम्यकदृष्टि को सबसे प्रेम होता है, स्नेह से सेवा करता है, ६.ज्ञान मद-मैं इतना ज्ञानवान हूँ मैंने इतने ग्रन्थ पढ़े हैं मेरे आगे कौन कहाँ किसी से ग्लानि नहीं करता निर्विचिकित्सक अंग पालता है।
लगता है? ४. मूढ दृष्टि - मिथ्यादृष्टि हमेशा मूढताओं में लगा रहता है, उसकी दृष्टि में
७.रूप मद-मैं इतना रूपवान स्वस्थ सुन्दर हूँ। सब मूर्ख नजर आते हैं, उसे कोई ज्ञानी,धर्मी दिखाई नहीं देता। जबकि सम्यकदृष्टि ८. ऋद्धि मद-मैंने इतना कला कौशल सीखा है, मैं हर बात में, हर काम में ज्ञानी,धर्मी जीवों का सत्संग सेवा करता है, वह किसी मूढता में नहीं फंसता इसलिये
परिपूर्ण हूँ, मेरे आगे कौन क्या बतायेगा? अमूढ दृष्टि है, ज्ञानी है।
छह अनायतन- कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और तीनों के भक्त इनकी संगति ५.अनुपगृहन-मिथ्यादृष्टि दूसरों की निन्दा बुराई करता है, अपनी प्रशंसा
करना। करता है, उसे सब में दोष दिखाई देते हैं, अपने में कोई दोष दिखता ही नहीं है। तीन मूढता-लोक मूढता, देव मूढता, पाषंडी मूढता। सम्यक्दृष्टि पर के दोष नहीं,अपने दोष देखता है, अपनी ही निन्दा करता है, दोष यह पच्चीस मल हैं, इनके सेवन करने से दारुण दु:ख भोगना पड़ते हैं, मिटाता है, पर की प्रशंसा करता है, इस प्रकार उपगूहन अंग का पालन करता है। सम्यक्दृष्टि इन सबका स्वरूप जानता है, इनका सेवन संगति कभी नहीं करता।
६.अस्थितिकरण-मिथ्यावृष्टि स्वयं तो धर्म पालता नहीं और दूसरों को मिथ्यादृष्टि इनमें ही रत रहता है, अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानता, इस बात भी पालने नहीं देता,विराधना, आलोचना करता है। जबकि सम्यकदृष्टि स्वयं तो8 को आगे गाथा में कहते हैंधर्म मार्ग पर चलता ही है और अन्य जीवों को भी धर्म मार्ग में लगाता है, धर्म में मिथ्या मति रतो जेन, दोसं अनंतानंतयं । स्थिर करता है, सहयोग देता है, समर्थन करता है, वह स्थितिकरण अंग पालता है।
पालता है। सुख दिस्टि न जानते,असुद्धं सुखलोपनं ॥३०॥ ७. अवात्सल्य-मिथ्यादृष्टि सबसे ईर्ष्या द्वेष रखता, बैर-विरोध करता है,
अन्वयार्थ- (मिथ्या मति रतो जेन) जो जीव मिथ्या मति में रत है (दोसं आपस में न प्रेम से रहता है न रहने देता है। जबकि सम्यकद्रष्टि सबसे मैत्री प्रेम वात्सल्य रखता है, सबके सुख-दु:ख में सहयोगी परोपकारी दयालु होता है, वह
अनंतानंतयं) वह अनन्तानंत दोष, कर्मों का बन्ध करता है (सुद्ध दिस्टि न जानते) वात्सल्य अंग पालता है।
शुद्ध दृष्टि, अपने शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानता (असुद्धं सुद्ध लोपन) अशुद्ध दृष्टि होने से शुद्ध दृष्टि का लोप करता है बिला देता है।
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