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oक श्री श्रावकाचार जी
गाथा-
३३O O आत्मा हूँ, ऐसा न मानना ही मिथ्यात्व है और यह अगृहीत अर्थात् अनादिकाल से आलोचना करता रहे। बैर-विरोध रखना जिसका स्वभाव हो, जिसे किसी की बात लगा है। यह नाम रूप शरीरादि संयोग ही मैं हूँ, इनसे भिन्न चैतन्य तत्व जीवात्मा अच्छी न लगे, जो अपने आपको सबसे श्रेष्ठ माने, हमेशा अपने आपमें फूला रहे, मैं हूँ ऐसा नहीं मानना ही मिथ्यात्व है। तत्वार्थ का अश्रद्धान अर्थात् प्रयोजनभूत , जिसके चेहरे पर कठोरता बनी रहे, यह अनन्तानुबंधी मान है, जो पत्थर के खम्भे के जीव तत्व का श्रद्धान न होना ही मिथ्यात्व है।
र समान होता है। २. सम्यक् मिथ्यात्व- यह शरीर भी मैं हूँ और जीव आत्मा भी मैं हूँ ऐसा ४.अनन्तानुबंधी माया- छल-कपट, बेईमानी, मायाचारी करना जिसका । मिला-जुला श्रद्धान ही सम्यकमिथ्यात्व है। शरीर और मैं एक साथ ही पैदा हुए स्वभाव हो, निष्प्रयोजन खुशामदी बातें करना, इसको उसको उलझाकर मजा देखना,
और दोनों एक साथ ही मरेंगे, एक के बिना दूसरा रहता ही नहीं है, दोनों के मिले रहने ८ नाम,दाम,काम के प्रति तीव्र आसक्त रहना,जनरंजन राग का विशेषपना, लौकिक पर ही सब काम होते हैं, ऐसी मान्यता ही सम्यक् मिथ्यात्व है।
मूढता,रूढ़ियों का तीव्र पक्षपाती, अपने मन में सदा प्रपंच दंद-फंदरचते रहना, ३. सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व- मैं जीव आत्मा तो हूँ, पर यह शरीरादि का यह अनन्तानुबंधी माया है जो बाँस की जड़ के समान तीव्र टेढ़ी-मेढ़ी होती है। कर्ता मैं ही हूँ, मैं न करूँ तो कुछ हो ही नहीं सकता, इसका नाम सम्यक् प्रकृति इन तीन मिथ्यात्व और चार अनन्तानुबंधी कषाय के छोड़ने,छूटने पर मिथ्यात्व है। यह अशुद्ध पर्याय भी मेरी है और मैं भी अशुद्ध हूँ, मेरे ऊपर कर्मों ही सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होती है, जिससे संसार का भवभ्रमण का आवरण चढ़ा है। कर्मों की जब तक सहूलियत न मिले तब तक कुछ हो ही जन्म-मरण का चक्र मिटता है। जीव सुख, शांति, आनंद में रहता है, मुक्ति का नहीं सकता, ऐसी मान्यता का नाम सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व है। अशुद्ध दशा में मार्ग बनता है, सिद्ध पद, परमानन्द की उपलब्धि होती है। अपने आपको शुद्ध मानना गलत है, निमित्त और व्यवहार के बिना कैसे काम है यहाँ प्रश्न कर्ता पुन: प्रश्न करता है कि गुरुदेव! यह तीन मिथ्यात्व और चार चलेगा ऐसी मान्यता सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व है। इसके चल, मल, अगाढ़ तीन अनन्तानुबंधी कषाय के छोड़ने पर छूटने पर सम्यकदर्शन होता है या सम्यकदर्शन दोष भी होते हैं।
होने पर यह छूटते हैं, इसका क्रम क्या है? चार अनंतानुबंधी कषाय उनके नाम और स्वरूप
यह महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिसका समाधान श्री जिन तारण स्वामी करते हैं१.अनन्तानुबंधी लोभ-अनन्त अनुबंध करने को अनन्तानुबंधी कहते
सप्त प्रकृति विछिदो जत्र, सुद्ध दिस्टि च दिस्टिते। हैं। लोभ-तृष्णा, चाह को कहते हैं। जिसके रहते किसी वस्तु की सीमा की चाह न रहे वह अनन्तानुबंधी लोभ है। असीम चाह, असीम तृष्णा, कितना ही कुछ भी
श्रावकं अविरतं जेन,संसार दुष परान्मुष ॥ ३३॥ होवे, लेकिन उससे तृप्ति न होवे, सन्तोष का न होना ही अनन्तानुबंधी लोभ है.6 अन्वयार्थ-(सप्त प्रकृति विछिदो जत्र) जिस समय सातों प्रकृति का इसके सद्भाव में ही क्रोध, मान,माया, अधिक प्रबल होते हैं। अनन्तानुबंधी लोभ विच्छेद-क्षय, क्षयोपशम, उपशम होता है (सुद्ध दिस्टि च दिस्टिते) उसी समय डामर के समान न मिटने वाला होता है।
* शद्धदष्टि दिखाई देने लगती है अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति, अपने शुद्ध ध्रुव स्वभाव २.अनन्तानुबंधी क्रोध-जो क्रोध अपने आपशान्त न हो, प्रतिद्वंदी विरोधी का दर्शन हो जाता है (श्रावकं अविरतं जेन) वही जीव अविरत श्रावक अर्थात् ० को देखते ही चाहे जब भड़क उठे, बदला लेने की भावना निरन्तर बनी रहे, किसी सम्यक्दृष्टि हो जाता है (संसार दुष परान्मुषं) संसार के दु:खों से छूट जाता है. .
के अपराध को बदला लिये बगैर माफ न कर सके, जिसके हमेशा रौद्र ध्यान चलते परांगमुष अर्थात् संसार से विमुख हो जाता है। रहें,रौद्र रूप बना रहे, यह अनन्तानुबंधी क्रोध है, जो पत्थर की लकीर के समान न विशेषार्थ- यहाँ उस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं जो शिष्य ने किया था कि मिटने वाला होता है।
मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के छूटने पर सम्यक्दर्शन होता है या सम्यक्दर्शन ३. अनन्तानुबंधी मान- जो झुकना न जाने, जो हमेशा दूसरों की निन्दा होने पर यह सात प्रकृतियाँ छूटती हैं?