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श्री श्रावकाचार जी
गाथा-३४ OO स्वरूप बताईये?
भाव जो इसके पूर्व कभी न हुए हों। अनिवृत्ति करण-शुभ-अशुभ दोनों भावों से 6 पंच परावर्तन रूप संसार का परिणमन चल रहा है, वह पंच परावर्तन
बचने छूटने और अपने शुद्ध स्वभाव की तीव्र लगन होना और ऐसे ही समय में । हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव। यह पंच परावर्तन और चार गति,यही पूरा संसार
. काललब्धि आती है तथा अपने स्वरूप का दर्शन, निर्विकल्पदशा हो जाती है, यही का चक्र है और इसी में यह जीव अनादि से परिभ्रमण कर रहा है। परावर्तन का * सम्यकदर्शन है। वर्णन तो बड़ा विशद् और सूक्ष्म है, जो त्रिलोक प्रज्ञप्ति में स्वाध्याय करने से र
यहाँ प्रश्न यह है कि अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल और प्रायोग्य लब्धि के । पता लगेगा। संक्षेप में यह है कि पुद्गल द्रव्य अनन्तानंत परमाणु हैं। अब जीव से
अंतर्गत अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर के भीतर कर्मों का सत्ता में रह जाना, इसमें क्या जितने पुदगल परमाणु का संयोग हुआ, उन परमाणुओं को एक-एक क्रम से पुन: भेट है? भोगता है और जब वह पूरे होते हैं, तब वह पुद्गल द्रव्य परावर्तन कहलाता है।। अर्द्ध पदगल परावर्तन काल में काल की अपेक्षा बात है कि अब इस जीव का इसी प्रकार जितने जीवों से संबंध हुआ, उसी क्रम से वह चलता है तथा ऐसे ही थोडे काल का ही संसार में भमण रह गया अब यह मक्त होने वाला है तथा अन्तः क्षेत्र-भरत ऐरावत आदि, काल-उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप, भाव-औदयिक कोडाकोडी सागर के भीतर कर्मों का शेष रह जाना अर्थात् अब कर्मों की सत्ता भी आदि, भव-चारोंगति । इन सबका पूरा भ्रमण एक-एक परावर्तन कहलाता है।
थोड़ी रह गई क्योंकि कर्मों की सत्ता ज्यादा तीव्र होवे तो भी जीव कुछ नहीं कर अब इसमें पुद्गल द्रव्य का अर्द्धपरावर्तन काल शेष रहने पर अर्थात् इस जीव को
सकता। कर्मों का क्षय होने पर ही जीव की मुक्ति होती है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संसार में थोड़े समय ही रहना है, इसकी मुक्ति का समय आ गया, तब काललब्धि संबंध है। आने पर सम्यक्दर्शन अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति होती है। काललब्धि, पंचलब्धि
" अब यहाँ जिस जीव को अपने स्वरूप का श्रद्धान अनुभूति हुई, वही में करणलब्धि के अन्त समय में आती है, यह पाँच लब्धियाँ इस प्रकार हैं-क्षयोपशम सम्यकदृष्टि अव्रती श्रावक कहलाता है और वह संसार के दु:खों से परान्मुख हो लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि, अब इनका
जाता है फिर वह संसार के दुःख भोगता नहीं है। आत्मीय आनंद में मगन रहता है, स्वरूप कहते हैं
3 एक तरह से तो वह संसार के दुःखों से मुक्त हो ही गया क्योंकि अब दो चार दस भव १. क्षयोपशम लब्धि- सब कर्मों का क्षयोपशम होना, मनुष्य भव आदि में मुक्त हो जायेगा। अब कोई भी शक्ति कर्मों की सत्ता उसे संसार में नहीं रोक शुभ योग की प्राप्ति होना।
सकती, उसका तो पूरा जीवन ही बदल जाता है, उसकी दृष्टि उसका लक्ष्य ही २. विशुद्धि लब्धि-कषायों की मंदता, भावों की निर्मलता।
बदल जाता है, अपूर्व स्थिति हो जाती है, जो बाहर से तो एकदम देखने में नहीं ३. देशना लब्धि-धर्म के स्वरूप को सुनने समझने और धारण करने की है
आती परन्तु अन्तरंग परिणति क्या होती है, सम्यकदृष्टि जीव कैसा होता है, योग्यता।
उसकी दृष्टि और लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन करते हैं४. प्रायोग्य लब्धि-पूर्व बद्ध कर्मों का अन्त: कोडाकोड़ी सागर प्रमाण रह
संमिक दिस्टिनो जीवा, सुख तत्त्व प्रकासकं । जाना। यह थोड़ा सूक्ष्म विषय है, सामान्यत: यह समझ में नहीं आता परन्त जिसके होने पर धर्म मार्ग पर चलने, धर्म साधना करने आत्म कल्याण करने, व्रत, नियम,5
परिनाम सुखसंमिक्तं,मिथ्या दिस्टि परान्मुकं ॥ ३४॥ संयम के भाव होने लगते हैं, यह बाहर से इसकी पहिचान है।
अन्वयार्थ-(संमिक दिस्टिनो जीवा) सम्यक्दृष्टि वाला जीव (सुद्ध तत्त्व ५. करण लब्धि-परिणाम, भावों की पकड़ और संभाल होने लगना। प्रकासकं) शुद्ध तत्व का प्रकाश करता है अर्थात् शुद्ध तत्व का अनुभव करता है, इसके तीन भेद हैं- अध: करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण।
उसे जानता है (परिनाम सुद्ध संमिक्त) परिणामों में शुद्ध सम्यक्त्व ही होता है अध:करण-निम्न स्तर के सामान्य परिणाम होना । अपूर्व करण- विशुद्ध अर्थात् आत्मा का ही विचार चिन्तन चलता है (मिथ्या दिस्टि परान्मुषं) मिथ्यादृष्टि