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श्री आवकाचार जी
है तथा वह क्या करता है इसका वर्णन चल रहा है। सम्यक्दृष्टि सच्चे देव, गुरू, धर्म की भक्ति करता है। सच्चा देव कौन है ? निज शुद्धात्मा। सच्चा गुरू कौन है ? निज अन्रात्मा, वीतराग परिणति । इनकी भक्ति करता है अर्थात् इन्हीं के स्मरण-ध्यान में लगा रहता है। व्यवहार में सच्चे देव सर्वज्ञ वीतरागी हितोपदेशी, केवलज्ञानी सशरीरी और अशरीरी सिद्ध परमात्मा तथा वीतराग निर्ग्रन्थ दिगम्बर ज्ञानी साधु की भक्ति करता है। सच्चे धर्म का पालन करता है, सच्चा धर्म क्या है ? अपना शुद्ध स्वभाव ही सच्चा धर्म है, इसका पालन करता है। व्यवहार में अहिंसा परमोधर्म का पालन करता है, दशलक्षण रूप धर्म का आचरण करता है। सच्चे तत्व का अनुभव करता है अर्थात् सत्संग, स्वाध्याय द्वारा तत्व का सही निर्णय करता है। मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर से छूट गया, मुक्त हो गया है अर्थात् अब वह इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति नहीं करता ।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदृष्टि, मिथ्यादेव, गुरू धर्म के चक्कर से छूट गया है अब इनकी मान्यता, वन्दना, भक्ति नहीं करता तो फिर विराधना, विरोध तो करता है, आलोचना तो करता है कि ऐसे हैं यह सब बताता है या नहीं ?
उसका समाधान करते हैं कि सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को किसी की विराधना, विरोध आलोचना करने की क्या जरूरत है ? वह तो सत्य का उपासक है, उसने सत्य वस्तु स्वरूप को जाना है, वह तो उसकी साधना आराधना करता है। पर के प्रपंच में पर की तरफ देखने की जरूरत ही क्या है। जो जैसा है, वह उसके लिये है, जो जैसा करेगा उसका परिणाम वह भोगेगा। जगत तो अनादि अनंत है, जगत में अनन्त जीव हैं और सबका परिणमन अपनी पात्रता, तत्समय की योग्यतानुसार चल रहा है और चलेगा, उसे बदल भी कौन सकता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी ने वस्तु स्वरूप जाना और वह वहाँ से हट गया। कहने बताने में आयेगा तो वह सत्य वस्तु स्वरूप बतायेगा, कोई माने या न माने, वह किसी का बैर-विरोध, आलोचना नहीं
करता ।
यहाँ पुनः प्रश्न है कि फिर तारण स्वामी ने कुदेवादि का विरोध क्यों किया? उसका समाधान है कि तारण स्वामी ने सच्चे देव, सच्चे गुरू, सच्चे धर्म का स्वरूप बताया है, वहीं मिथ्या देव, मिथ्या गुरू, मिथ्या धर्म का स्वरूप बताया है पर उन्होंने किसी की विराधना विरोध नहीं किया। किसी को यह नहीं कहा यह गलत है, यह सही है, उन्होंने तो स्वरूप बताया है कि अब देख लो, समझलो, फिर
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गाथा-३६
जिसे जो मानना हो मानो। उन्होंने यहाँ अभी सम्यदृष्टि, मिथ्यादृष्टि की परिभाषा बतलाई; परन्तु यह नहीं कहा कि तुम मिथ्यादृष्टि हो या हम सम्यकदृष्टि हैं, उन्होंने तो यह बताया है कि जो यथार्थ वस्तु स्वरूप है वह ऐसा है, अब हम स्वयं अपने को देख लें, अपने देव गुरू धर्म की मान्यता को देख लें। तारण स्वामी ने आज तक किसी के विरोध में एक शब्द नहीं कहा, व्यक्तिगत आलोचना नहीं की । मालारोहण ग्रंथ की पाँचवीं गाथा में स्पष्ट कहा है
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शल्यं त्रियं चित्त निरोध नित्वं, जिन उक्त वानी ह्रिदै चेतयत्वं । मिथ्यात देवं गुरु धर्म दूरं, सुद्धं सरूपं तत्वार्थ सार्धं ॥ परन्तु इतना अवश्य है कि जिसने सत्य को जाना, सत्य को उपलब्ध किया वह तो सत्य वस्तु स्वरूप ही कहेगा, कोई माने अथवा न माने, इसके लिये प्रत्येक जीव स्वतंत्र है।
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यहाँ सम्यक्दृष्टि कैसा होता है, उसकी मान्यता और साधना क्या है ? इसका विवेचन चल रहा है, इसी क्रम में आगे उसका और वर्णन करते हैंसंमिक दर्सनं सुद्ध न्यानं आचरन संजुतं ।
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सार्द्धं त्रिति संपूर्न, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥ ३६ ॥
अन्वयार्थ - (संमिक दर्सनं सुद्धं) सम्यक्दर्शन शुद्ध होने पर (न्यानं आचरन संजुतं) ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं (सार्द्धं त्रिति संपूर्णं) सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों की पूर्णता ही मोक्ष है और तीनों की साधना ही मोक्षमार्ग है (कुन्यानं त्रिविधिमुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त हो जाता है, छूट जाता है।
विशेषार्थ- यहाँ शुद्ध सम्यक्दर्शन होते ही, ज्ञान भी सम्यक्ज्ञान और चारित्र भी सम्यक्चारित्र हो जाता है यह बतलाया जा रहा है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यक्दर्शन होते ही ज्ञान, सम्यक्ज्ञान और चारित्र सम्यक् चारित्र कैसे हो जाता है ? क्योंकि अभी तो वह मोह, राग-द्वेषादि अज्ञानमय है तथा पा विषय- कषायों में लगा है तो यह सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कैसे हुआ ?
उसका समाधान करते हैं कि जब तक जीव मिथ्यात्व सहित था तब तक कितने ही ग्रन्थों का पठन करने वाला, यहाँ तक कि ग्यारह अंग और नौ पूर्व का जानने वाला भी मिथ्यात्व सहित मिथ्याज्ञानी है और श्रावक के व्रत, संयम और
साधु के अट्ठाईस मूलगुण का निरतिचार पालन करना भी मिथ्यात्व सहित,