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श्री आवकाचार जी
करता है। इससे संसार में तो भ्रमण करेगा ही परंतु दुर्गतियों में जाना पड़ेगा । मिथ्या को सच मान लेना बड़ा भारी अज्ञान है। इसी से प्राणी का नाश होता है। जैसे- कोई रस्सी को सर्प माने तो वृथा भयभीत हो दुःख उठावे। ऐसे ही मिथ्यादेवों को देवों को तथा अदेवों को देव माने उसका इस जन्म में भी नाश होगा, धर्म से वंचित रहेगा तथा परलोक में दुर्गति के महान दुःख प्राप्त होंगे। मिथ्यात्व की तीव्रता से स्थावर काय में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति होना पड़ता है, जहाँ अनन्त काल तक रहना पड़ता है; अतएव जो स्थावरों के कष्टों में आत्मा को नहीं डालना चाहते उनको भूलकर भी अदेवों की भक्ति नहीं करना चाहिये ।
ऐसे कल्पित मिथ्यादेव, अदेवों को मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं और इस मिथ्यात्व और मूढदृष्टि होने से संसार में डूबे हुए उसके पात्र बने रहते हैं। इसी बात को ब्र. शीतलप्रसाद जी ने श्रावकाचार टीका में कहा है
अनंत संसार के भ्रमण का कारण मिथ्यात्व है। जो संसार में आसक्त है वही संसार में भ्रमण करता है। जो शरीर का रागी है, विषय भोगों का लोलुपी है, वह रात-दिन विषय की तृष्णा में फंसा हुआ विषय सामग्री मिलने पर हर्ष व वियोग होने पर विषाद किया करता है। वह इन्द्रिय सुख को ही अमृत समझता है। जैसे-मृग, मृगतृष्णा में चमकती हुई रेत को भ्रम से जल समझकर आकुल-व्याकुल होता है। प्यास बुझाने के स्थान पर और बढ़ा लेता है। इसी प्रकार यह मूढ प्राणी आत्माधीन अतीन्द्रिय सुख को न पहिचान कर इन्द्रिय सुखों में तन्मय होकर, दुःख भोगता हुआ, तृष्णा की दाह बढ़ा लेता है। यह मूर्ख प्राणी दु:ख, आकुलता व बंध के कारणभूत इन्द्रिय सुख को सुख मानकर उसी की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार उपाय करता है। बहुत से मिथ्या उपाय भी करता है। उन ही मिथ्या उपायों में कुदेवों का व अदेवों का पूजन है। इस भक्ति में अपनी शक्ति को व अपने धन को व्यर्थ खोता है और बहुत पाप का संचय करता है। नरक, निगोद, पशु गति में व दीन-हीन मनुष्य गति में व कांतिहीन क्षुद्र देवों में पैदा होकर अनेक शारीरिक और मानसिक दुःख उठाता है। जैसे-अंधकूप में गिर जाने से निकलना बड़ा कठिन है, उसी प्रकार भयानक संसार में पतन होने से इससे निकलने का साधन जो सम्यक्दर्शन है, इसका पाना कठिन है। ऐसा जानकर कुदेवों की व अदेवों की भक्ति कभी नहीं करना चाहिये ।
इसी बात को पंचाध्यायी में पं. राजमल्ल जी कहते हैं
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गाथा- ६१-६४
अदेवे देव बुद्धिः स्यादधर्मे धर्म धीरिह । अगुरौ गुरू बुद्धिर्याख्याता देवादि मूढ़ता ॥ ५९५ ॥ कुवैवाराधनं कुर्यादिडिक श्रेयसे कुधीः । मृषा लोकोपचारात्वाद श्रेया लोक मूढ़ता ॥ ५९६ ॥ अस्ति श्रद्धान मेकेषां लोक मूढ़ वशादिह । धनधान्य प्रदानूनं सम्यगाराधि ताम्बिका ॥ ५९७ ॥ अपरेऽपि यथाकामं देवानिच्छन्ति दुर्धियः । सदोषानपि निर्दोषानिय प्रज्ञापराधतः ।। ५९८ ।। नोक्तस्तेषां समुद्देशः प्रसंगादपि संगतः । लब्धवणों न कुर्याद्वै निःसारं ग्रन्थ विस्तरम् ।। ५९९ ॥ अधर्मस्तु कु देवानां यावानाराधनोद्यमः ।
तैः प्रणीतेषु धर्मेषु चेष्टा वाक्काय चेतसाम् ॥ ६०० ॥ जीव को जो अदेव में देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और अगुरू में गुरू बुद्धि होती है वह देवादि मूढ़ता कही जाती है। मिथ्यादृष्टि जीव दैहिक सुख के लिये कुदेव की आराधना करता है, यह झूठा लोकाचार है; अत: लोकमूढ़ता अकल्याणकारी मानी गई है। लोकमूढ़ता वश किन्हीं पुरुषों का ऐसा श्रद्धान है कि अम्बिका की अच्छी तरह आराधना करने पर वह धन-धान्य देती है। इसी तरह अन्य मिथ्यादृष्टि जीव भी अज्ञानवश सदोष देवों को भी निर्दोष देवों के समान इच्छानुसार मानते हैं। प्रसंगानुसार सुसंगत होते हुए भी उनका निर्देश यहां पर नहीं किया है; क्योंकि जिसे चार अक्षर का ज्ञान है वह निष्प्रयोजन ग्रन्थ का विस्तार नहीं करता । कुदेवों की आराधना के लिये जितना भी उद्यम है, वह और उनके द्वारा कहे गये धर्म में- वचन, काय और मन की प्रवृत्ति यह सब अधर्म है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि वर्तमान में तो सच्चे देव तीर्थंकर अरिहन्त परमात्मा हैं नहीं और सिद्ध परमात्मा अशरीरी होते हैं फिर हम देवपूजा करने के लिये क्या करें ? क्योंकि देवपूजा करने से हमारे भावों में शुभता रहती है तथा पुण्य बन्ध भी होता है। इसके लिये फिर क्या करें? हम कुदेवादि को तो मानते नहीं, सच्चे वीतरागी देव को ही मानते हैं। उनकी ही मूर्ति बनाकर पूजते हैं फिर इसमें क्या दोष है ? इसका समाधान करते हैं कि देव का अर्थ है इष्टपुरुष परमात्मा, जिनका आदर्श मानकर हम जीवन जियें । यहाँ वैदिक आदि दर्शन देव को विश्व को रचने
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