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Our श्री बाचकाचार जी
गाचा-१७GC दूसरे महिने में वीर्य की अवस्था बुलबुले जैसी हो जाती है. पुनः एक मास में
जौवन ने विदा लीनी, जरा ने जुहार कीनी। वह घट्ट बन जाता है, चतुर्थ मास में उसको मांसपेशी की आकृति प्राप्त होती है।
हानी भई सुधि बुधि, सवै बाम ऊनी सी॥ पाँचवें मास में मांसपेशीरुप पिंड में पाँच पुंलव अर्थात् अंकुर उत्पन्न होते हैं, इनमें से
तेज घट्योताव घट्यो,जीवन को चाव घट्यो। नीचे के दो अंकुरों से दो पैर, ऊपर के दो अंकुरों से दो हाथ और बीच के अंकुर से *
और सब घट्यो, एक तिस्ना दिन दूनी सी॥ मस्तक की रचना होती है तथा आँख, कान,आदि उपांगों की भी रचना होती है। इस वृद्धावस्था में यह हालत हो जाती है कि कोई बात पूछने वाला, बात करने । प्रकार गर्भस्थ बालक के आंगोपांगों का, अवयवों का निर्माण होता है। छटवें मास में वाला भी नहीं मिलता। मोह-लोभ बढ़ जाता है, किसी को खाने-पीने की इच्छा उन अवयवों पर चर्म और रोम की उत्पत्ति होती है, हाथ-पैर में नख उत्पन्न होते हैं। बढ़ जाती है और खाया हुआ हजम नहीं होता। कफ,खाँसी आदि अनेक परेशानियाँ सातवें मास में कमल नाल उत्पन्न होता है, माता के द्वारा भक्षण किये हुए आहार के होने लगती हैं। रस को ग्रहण करता है। आठवें मास में उस गर्भ में हलन-चलन, बलन होने लगता ४. देवगति-जहाँ ऋद्धि आदि के योग से शारीरिक सुख के सब साधन है। नवमें-दसमें महिने में बालक गर्भ से बाहर आता है अर्थात बच्चे का जन्म होता सहज में उपलब्ध हों उसे देवगति कहते हैं। देवगति पुण्य के उदय, संयम, तप है।आमाशय और पक्वाशय के मध्य,जाल के समान मांस और रक्त से लिप्त हुआ, करने से प्राप्त होती है। वह गर्भ में नव मास पर्यन्त रहता है। इस प्रकार नौ मास तक इतना कष्ट भोगता है, सरागसंयम संयमासंयमाकामनिर्जरा बालतपसि वैवस्य ॥ जिसका वर्णन करना अशक्य है। बालपने में क्या दशा रहती है. यह तो प्रत्यक्ष
(तत्वार्थ सूत्र-६/२०) देखने में आता है, ज्ञान न होने से किस प्रकार दुःख तकलीफ होने पर कह नहीं
देवगति में वैक्रियक शरीर होता है, वहाँ गर्भजन्म नहीं होता, उप्पाद शय्या सकता, बता नहीं सकता और किसी को अशुभ, पाप कर्म का उदय होवे तो क्या पर जन्म होता है। नरक में बिलों में जन्म होता है। मनुष्य और तिर्यंच गति में गर्भ होता है, यह तो जगत में प्रत्यक्ष ही है। माता-पिता आदि का मर जाना या किसी और संमूर्छन जन्म होता है। प्रकार का शरीर अंग-भंग हो जाना, गरीबी आदि की दशा में पराधीन-पराश्रित: देवों के चार भेद है-१. भवनवासी, २. व्यन्तर, ३.ज्योतिषी. ४. वैमानिक। रहना पड़ता है। जवानी के जोश में होश नहीं रहता, विषयादि सेवन में लग जाता चार प्रकार के देवों में सामान्य दस भेद हैंहै। पापादि करने में तल्लीन रहता है, घर-परिवार की जिम्मेदारी, दुनियादारी के १.इन्द्र,२. सामानिक,३.त्रायस्त्रिश,४. पारिषद,५. आत्मरक्ष,६.लोकपाल, जाल में ऐसा फँस जाता है कि फिर अपना तो कोई होश रहता ही नहीं है।४७. अनीक,८.प्रकीर्णक, ९. आभियोग्य, १०.किल्विषिक। हित-अहित का विवेक खो जाता है, मोह का साम्राज्य बढ़ता है, तब अपनी सब . भवनवासी देवों के दस भेदसुध-बुध खोकर उसी में पागल-अन्धा हो जाता है। आवश्यकतायें जिम्मेदारियाँ ११.असुर कुमार, २. नाग कुमार, ३. विद्युत कुमार, ४. सुपर्ण कुमार, ५. अग्नि बढ़ती हैं, फिर रात-दिन चिन्तित भयभीत रहता है. आगे पीछे के संकल्प-विकल्पों कुमार, ६. वात कुमार, ७. स्तनित कुमार, ८. उदधि कुमार, ९. द्वीप कुमार, में उलझा रात-दिन दुःखी रहता है, रोग और बुढ़ापा आने पर तो हालत ही बिगड़ १०.दिक् कुमार। जाती है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मनुष्य तो निरन्तर चिंतित और दुःखी ही रहता है। 5 व्यन्तर देवों के आठ भेद होते हैंरूपको न खोज रह्यो,ज्यों तुषार दह्यो।
१.किन्नर, २. किंपुरुष, ३. महोरघ, ४. गंधर्व, ५. यक्ष, ६.राक्षस,७. भूत, ८. पिशाच। भयो पतझार किधो, रही तार सूनी सी॥
पहले नरक रत्नप्रभा की पृथ्वी के तीन भाग हैं - कूबरी भई है कटि, दूबरी भई है देह।
१. खर भाग, २. पंक भाग, ३. अब्बहुल भाग । पहले और दूसरे भाग में ऊबरी इतेक आयु, सेर मांहि पूनी सी॥
व्यन्तर और भवनवासी देवों के निवास हैं, तीसरे अब्बहुल भाग में प्रथम नरक के