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श्री आवकाचार जी
विभावरूप परिणमित कैसे हुआ ? तथा इनमें पहले कौन हुआ और कैसे हुआ ? उसका समाधान करते हैं कि ऐसा अनादि से है। कैसे अनादि से ? जैसे - वृक्ष और बीज । वह कहाँ से आया, कैसे हुआ ? यह अनादि की प्राकृतिक स्वतंत्र व्यवस्था है, इसी सिद्धांत से पूरे विश्व का परिणमन स्वतंत्र है, यहाँ कोई किसी का कर्ता नहीं है, सब अपने आप तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है। ठीक है, यह अनादि से है और सब तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है तो फिर अब क्या होगा ?
अब इस बात को समझ लो कि मैं परमात्म स्वरूप हूँ और यह सब माया है। माया कहो या कर्म कहो एक ही बात है और इससे छूटने का भाव हो तब बात बने;
क्योंकि अभी एक समस्या और है कि यह संसार में विमोहित हो रहा है। श्री तारण स्वामी कहते हैं- संसार सरन संगते, संसार की शरण में रंजायमान हो रहा है। अर्थात् इसी के चक्कर में घूम रहा है। इसी को पं. दौलतराम जी ने छहढाला में कहा
है ।
मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ॥
जैसे जाति का बंदर और ऊपर से शराब पिये हो फिर देखो कितनी उछल कूद, उठापटक करता है। इसी प्रकार यह जीव मिथ्यात्व से अंधा हो रहा है और साथ में लगा है मोह, माया का प्रपंच, अब छूटे तो कैसे छूटे ?
और फँसा है कैसे चक्कर में, इन सब बातों को सुनो तब पता लगे, तारण स्वामी तो यहाँ जड़ खोदकर बता रहे हैं, संसार भ्रमण का कारण पूछा है तो पूरी बात सुनो, क्योंकि जीव कितने गहरे में फँसा है, डूबा है। जब तक पूरी बात सुनेंगे, समझेंगे नहीं, तब तक काम चलने वाला नहीं है और ऐसे सहज में छुटकारा होने वाला भी नहीं है।
यह मिथ्यात्व के साथ ही मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर में फँसा है, मिथ्यात्व माया में विमोहित हो रहा है, शरीरादि अचेतन से राग कर रहा है, इससे संसार में भ्रम रहा है, इसी बात को आगे गाथा में कहते हैं
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SYA GARAAN FÅR A YEAR.
मिथ्या देव गुरं धर्म, मिथ्या माया विमोहितं ।
अनृतं अचेत रागं च, संसारे भ्रमनं सदा ।। १९ ॥
अन्वयार्थ - ( मिथ्या देव गुरं धर्म) मिथ्या देव, गुरू, धर्म के चक्कर में फँसा है (मिथ्या माया विमोहितं) मिथ्या माया में मोहित हो रहा है (अनृतं अचेत रागं च)
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गाथा १९
और क्षणभंगुर नाशवान जो शरीरादि हैं इनमें राग कर रहा है (संसारे भ्रमनं सदा) इससे हमेशा संसार में भ्रमण कर रहा है और करेगा ।
विशेषार्थ - एक कहावत है- गुरवेल और नीम चढ़ी, गुरवेल वैसे ही कड़वी होती है और नीम पर चढ़ी हो तो ज्यादा कड़वी हो जाती है। इसी प्रकार जीव अनादि से मिथ्यात्व में तो फँसा ही है और ऊपर से मिथ्यादेव गुरू धर्म का ही आश्रय मिला, जो संसार में भटकने की पाप-पुण्य की ही चर्चा करते हैं। कभी सच्चे देव गुरू धर्म का सत्संग नहीं मिला, जो धर्म का वास्तविक स्वरूप बताते, आत्मा का श्रद्धान भेदज्ञान कराते ।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह बात तो समझ में नहीं आई; क्योंकि कई बार भगवान के समवशरण में भी गये, भगवान की दिव्य ध्वनि सुनी और वर्तमान में जैन कुल में वीतरागी देव गुरू धर्म के सानिध्य में हैं, आत्मा की भी चर्चा सुन रहे हैं फिर यह कैसे हो सकता है ?
उसका समाधान करते हैं कि भगवान के समवशरण में गये पर देखा किसे ? दिव्यध्वनि सुनी, परंतु भगवान की सुनी या अपने भीतर जो भरी थी उसे ही सुनते रहे ? क्योंकि
जो जादि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहि । सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥ ( प्रवचन सार गाथा - ८० )
जो अरिहन्त को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानता है वह आत्मा को जानता है और उसका मोह नाश को प्राप्त होता है।
इसलिये जिसे जीवादि तत्वों का श्रद्धान नहीं है उसे अरिहन्तादि का भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। बाहर से शरीर की पूजा वंदना भक्ति स्तुति से कोई लाभ नहीं है ।
यही समयसार जी में कहा है
तं णिच्छयेण जुज्जदिण सरीरगुणा हि होति केवलिणो ।
केवलि गुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥ २९ ॥
वह स्तवन निश्चय में योग्य नहीं है क्योंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं होते, जो केवली के गुणों की स्तुति करता है वह परमार्थ से केवली की स्तुति करता है। वर्तमान में जैन कुल मेंआये हैं, वीतरागी देव, गुरू, धर्म का योग मिला है, पर हमारी दशा क्या हो रही है, क्या हम जैन हैं ? निश्चय से जिसने अपने को जान