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श्री श्रावकाचार जी है। परिवार के पीछे ही पाप, अन्याय, परिग्रह आदि करना पड़ते हैं और मोह ही संसार के साथ शरीर के स्वरूप का भी विचार करता है कि यह शरीर कितना. संसार का राजा है, मोह ही सब कर्मों का राजा है, मोह में फँसा जीव पागल, अन्धा अपवित्र मलमूत्र का घर है, इसी बात को इस गाथा में कहते हैंहोता है, दु:ख का एक मात्र कारण मोह है।
असत्यं असास्वतं दिस्टा, संसारे दुष भीरुहं। परिवार के कारण-मोह, शरीर के कारण-राग,धन के कारण-मेष होता
सरीरं अनृतं दिस्टा, असुच अमेव पूरितं ॥१६॥ है यही संसार है। चार गति चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण, जन्म-मरण का चक्र ही संसार
अन्वयार्थ- (संसारे दुष भीरुह) संसार के दुःखों से भयभीत होकर (असत्यं । है,जहाँ भय और दुःख ही दुःख भरा है। मिथ्यादृष्टि तो मूच्छित, बेहोश है. उसे तो असास्वतं दिस्टा) इसको असत्य झूठा अशाश्वत क्षणभंगुर नाशवान देखता है इसका कुछ पता ही नहीं है, वह तो इसी में सुख की आशा से डूबता-मरता रहता है।
४ (असुच अमेव पूरित) अशुचि अपवित्र मलमूत्रादि से भरा हुआ (सरीरं अनृतं दिस्टा)
(असुच अमवपू सम्यक्दृष्टि इससे छूटने का वैराग्य भावना का चिन्तवन करता है परन्त कर्मों की यह शरीर अनित्य है ऐसा विचार करता है। बलवत्ता के कारण छूट नहीं पाता, फिर भी निरन्तर इसके स्वरूप का विचार करता विशेषार्थ- सम्यक्दृष्टि ज्ञानी संसार के दु:खों से भयभीत होकर इसको रहता है, संसार नाशवान और झूठा है, ऐसा जानता है। संसार नाशवान है अर्थात् असत्य, क्षणभंगुर, नाशवान ही देखता है, इससे छूटने का ही विचार करता है। परिवर्तनशील है, क्षणभंगुर है, इसका परिणमन प्रति समय चलता और बदलता
चक्रवर्ती की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग। रहता है। यहाँ स्थिर, स्थायी, अविनाशी कोई भी कुछ भी नहीं है, धन, शरीर,
काक बीट सम लखत ४,सम्यवृष्टि लोग। परिवार का भी परिणमन परिवर्तन होता रहता है। यहाँ का संयोग संबंध सब
सिंह पीजरा में दियो, जोर चले कहु नाहिं। नाशवान, झूठा है। जैसे-वृक्ष पर पक्षी रैन बसेरा करते हैं, प्रात: सब अलग-अलग .
छटपटात नित रहत है,पड़ो पीजरा माहि॥ उड़ जाते हैं, वैसे ही इस पर्याय में मनुष्य भव और यह परिवार के संयोग में जब तक
यह है अव्रत सम्यकदृष्टि जीव की दशा, जहाँ संसारी जीव इसी में सुख की जिसकी, जितनी आयु है उतने समय तक रहता है, और फिर अपने कर्मों के अनुसार कल्पनायें करता रहता है, वहाँ सम्यकदृष्टि जीव निरन्तर छूटने के लिये छटपटाता अपने ठिकाने चला जाता है। यहाँ न एक जीव से दूसरे जीव का कोई संबंध है. न रहता है। संसारी जीव को जहाँ सुन्दर, स्वस्थ्य शरीर मिल जाये तो वह इतना परिवार का ठिकाना है, न शरीर स्थायी है और न धनादि ही स्थिर और स्थायी है। मगन हो जाता है कि फिर उसे आगे-पीछे की कुछ सुध नहीं रहती, इस क्षणिक पाप-पुण्य के उदयानुसार धनादि का परिणमन होता रहता है, सब स्वार्थका संसार सुख,पुण्य की विष्ठा को ही आनंद मानता है। सामान्य जन से जब व्यवहार में पूछा है। सम्यक्दृष्टि इस बात को जानता है। मिथ्यादृष्टि इसके धोखे में ही फंसा रहता जाता है कि सब कुशल-आनंद में हो, तो वह बड़े प्रसन्न होकर कहता है कि हाँ है। यहाँ संसार में कोई शरण नहीं है अर्थात् कोई शरण देने वाला रक्षा करने वाला भगवान की दया है, आपका आशीर्वाद है, खूब आनंद में हैं, सब बात का आनंद नहीं है।
* है। वहीं सम्यकदृष्टि को यह सब संसारी अनुकूलता जहर जैसी लगती है वह तो दल-बल देवी देवता, माता-पिता परिवार।
अपने अतीन्द्रिय आनंद-निजानन्द में मगन रहना चाहता है, उसे तो किसी को मरती विरिया जीव को, कोईन राखनहार॥
देखना, बोलना, मिलना भी अच्छा नहीं लगता। संसार में इस जीव का सहायी, साथी, रक्षक कोई नहीं है. यह जीव अपनी
जा सम्यग धारी की, मोहि रीति लगत है अटापटी। अज्ञानता से पर को अपना मानता है और स्वयं दु:खी रहता है। अब यह मौका इस
बाहर नारकीकृत दुःख भोगत, भीतर समरस गटागटी। संसार के बन्धन और जन्म-मरण से छूटने का मिल गया है, अपने शुद्धात्म स्वरूप
रमत अनेक सुरनि पे नित, छ्टन की है छटापटी॥ के चिन्तवन, मनन, आराधन में लगे रहकर इन सबसे छटना है. ऐसी वैराग्य भावना यह मनुष्य शरीर पाकर संसारी प्राणी कितना विषयान्ध हो जाता है, वहीं का चिन्तवन सम्यकुदृष्टि ज्ञानी करता रहता है।
.. सम्यक्दृष्टि जीव, इस शरीर की अपवित्रता, नाशवानपने का विचार करता रहता है।
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