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तृतीयकाण्डम्
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प्रकीर्णवर्गः१. ॥ श्रीः ॥ ॥ अथ तृतीयकाण्डम् ॥
॥ अथ प्रकीर्णवर्गः प्रारभ्यते ॥ प्रेकीर्णवर्गे लिङ्गोहः प्रकृति प्रत्ययादिभिः। संचयोऽपचयो तुल्यौ सैक्षयाऽपचयो क्षये ॥१॥ निष्ठीवने तु थुत्कार उदेजः पशुचालनम् । विरामो-पशमौ तुल्यौ-चान्तिस्तु वमनं वमिः ॥२॥ छर्युद्गाराऽऽविधस्तु स्याद् वेधनी भृङ्गसचिका । स्तम्बेध्नस्तु क्षुरपे स्यात्प्रत्याख्यानं निराकृतौ ॥३॥
हिन्दा-(१)लिङ्गबोधक विशेष प्रत्यय के अभाव में प्रकृति से, कहीं पर प्रत्यय से, कहीं पर रूपभेद से साहचर्य से लिङ्ग निर्णय संक्षिप्त वर्ग में होगा । (२) समुदाय अर्थ में-'संचय और अपचय पु० । (३) क्षय के दो नाम-संक्षय १ अपचय २पु० । (४) मुख से कफ फेंकना-थूकना अर्थ में दो नाम-निष्ठीवन (निष्ठेवन) १ नपुं., थूकार २ पु० । (५) प्रेरणा अर्थ में (उदज) होता है पु० (यहां अज धातु को वी आदेश नहीं होता है)। (६) विराम (समाप्ति) अर्थ में-विराम १ और उपशम २ पु०। (७) उल्टी के पांच नाम-वान्ति १ वमि २ स्त्रो०, वमन ३ नपुं०। छर्दि ४ उद्गारा ५ स्त्रो० । (८) सूई के तीन नाम-आविध १ पु, वैधनी २ भृङ्गसुचिका ३ ली । (९) हसिया खुरपा के दो नाम-स्तम्बध्न १ क्षुरप्र २ पु. (मुकुटने क्षुरप्र के स्थान पर 'खुरप्र' लिख के बाण भेद अर्थ बताया है)। (१०) निराकरण के दो नाम-प्रत्याख्यान (निरसन) १ नपुं०, निराकृति (प्रत्यादेश पु०) २ स्त्री।
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