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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः ३
हिंसा, हिंस्रेऽपि बीभत्से, ओजो दीप्तौ बले, मुँहः । तेज उत्सवयो रोकः ओकाः सद्माऽऽश्रयो रसः ।। २५१ ।। शृङ्गारादौ द्रवे वीर्ये गुण राग विषेष्वपि । पापाsपराधा वागैः स्या त्कर्ण पूरे च शेखरे ॥ २५२ ॥ उत्ततश्चाऽवतंसश्च हंसः श्वेतच्छदो रविः । इतिसान्ता । निर्यूहो द्वार आपीडे निर्यासे नागदन्तके ॥ २५३॥ दारा गृही गृहं वृत्रेऽप्येहि बर्ह दले ग्रहाः ।
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(१) 'बोस' विकृत पार्थ कर हिंस्र पाप घृणात्मा में पु० । (२) 'ओजस्' दीप्ति बल प्रकाश अवष्टम्भ में नपुं०, ( विषम संख्यावाची ओजस् तो अकारान्त भी है) । (३) 'महस्' उत्सव तेजस् में नपुं०, महः अदन्त भी है 'मही नद्यन्तरे भूमौ मह उत्सव तेजसो : ' मेदिनो । ( ४ ) 'ओकसू ' सद्म (घर) में नपुं०, आश्र - यमात्र में पु० । (५) 'रस' शुङ्गार आदि साहित्य रस में द्रव में वीर्य में स्वाद में विक्तादि गुण में विष में राग में देहधातु में जल में पारद पु०, शल्लकी पाठा जिह्वा घरणि क में 'रसा' स्त्री० । (६) 'आगस्' पाप और अपराध में नपुं० । (७) 'उत्तंस अवतंस' कर्णाभरण शेखर (भूषण) में पु० । (८) 'हंस' विहङ्गभेद अर्क विष्णु अश्वविशेष योगि मन्त्रादि भेद परमात्मा अमत्सर निर्लोभ राजा शरोरान्तः प्राणवायु में पु० । इतिसान्ताः ।
(९) 'निर्यूह' द्वार आपीड (भूषण) निर्यास ( रस काथ ) नागदन्त ( खूँटी) में पु० । (१०) 'गृहा: ' कलत्र में सद्म में पु० बहुवचनान्त, 'गृह' भवन अर्थ बोधक हो तो नित्य नपुं० । (११) अहि सर्प वृत्रासुर में पु० । (१२) 'बर्ह' पिच्छ दल में पु. नपुं० । (१३) 'ग्रह' निर्बन्ध अर्कादि उपराग सैंहिकेय पूतनादि ग्रहण अनुग्रह रणोद्यम में पु० ।
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