Book Title: Shivkosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Karunashankar Veniram Pandya

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Page 365
________________ तृतीय काण्डम् ३५२ अव्ययवर्गः तत्वार्थेऽञ्जसा प्रोक्तं प्रादुराविः प्रकाशने । असत्ये च मृषा मिथ्याऽवश्यं नूनश्च निश्चिते ॥९॥ निःषेमं दुःषमं निन्द्ये एव इत्यवधारणे । आमेवं तु पुनर्वैवा निश्चयार्थे प्रकीर्तिताः ॥ १० ॥ निकामानुमतौ कामम् ओमेवं परमं तथा । कदाचिज्जातु कस्मिंश्चित्काले द्वयमुदाहृतम् ॥ ११॥ सहार्थे तु समं सार्क सार्धं सत्रा सहेति च । भोः" प्यार पाट् अङ्गहै है स्युः सम्बोधनस्य द्योतकाः ॥१२॥ "हिरुग् वर्जनं सामीप्ये सहसा स्यादतर्किते । १० (१) 'अद्धा, अञ्जसा, ये दोनों तत्त्व यथार्थ अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (२) 'प्रादुः आविः, ये दोनों प्रकाशन स्फुट अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (३) 'मृषा, मिथ्या, ये दोनों असत्य अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । ( ४ ) अवश्यम्, नूनम्, ये दोनों निश्चित अर्थ में । ( ५ ) 'निः षमम् दुःषमम्, ये दोनों निन्दा करने योग्य अर्थ में । (६) 'एव' यह अवधारण (अन्य की व्यावृत्ति ) अर्थ में । ( ७ ) 'आम्, एवं, तु, पुनः, वै, वा, ये सभी निश्रय अर्थ में कहे हुए हैं । (८) 'कामम्' ओम् एवं परमम् ये चार अत्यन्त अनुमति (स्वीकृति ) अर्थ में ( ९ ) 'कदाचित् जातु' ये दोनों किसी भी अनिश्चितकाल अर्थ में कहा गया है । (१०) 'समं, साकं, सार्धं, सत्रा, सह, ये सब सहार्थ में प्रयुक्त होते हैं । (११) 'भोः प्याट् पाद, अङ्ग हैं, है, ये सब सन्बोधन अर्थ के द्योतक हैं । (१२) 'हिरुक्' यह वर्जन समीप अर्थ में है । (१३) 'सहसा अतर्कित एकाएक अचानक अर्थ में है । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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