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तृतीयकाण्डम् ३६७ लिङ्गादिनिर्णयवर्गः ५
षष्ठयन्ताच्चेत्परा छाया बहुत्वे संगता यदि ॥३३॥ तत्पुरुष समूहाथै सभा शब्दान्त एव च । शालार्थाऽपि सभाराजाऽमनुष्यार्था दराजकात् ॥३४॥ षष्ठयन्ताच्चेत्परा सा स्यात् दासी सममुदाहृतम् । उपज्ञोपक्रमान्तश्च प्राथम्यस्य प्रकाशने ॥३५॥ कन्थोशीनरदेशस्य संज्ञायां समुदाहृता ।
हिन्दी- (१) षष्ठी विभक्तयन्त से पर में स्नेह वाले बहुत्व अर्थ में प्रयुक्त छाया शब्द नपुंसक होता है जैसे- इक्षुच्छायम्, विच्छायम् इसी प्रकार समूह अर्थ में प्रयुक्त सभा शब्दान्त तत्पुरुष समास नपुंसक होता है जैसे स्त्रीसभम् इत्यादि । स्त्री समूह ऐसा अर्थ समझना चाहिये । (२) शाला (गृह) अर्थ वाला तथा समूह अर्थ वाला सभा शब्द यदि राज शब्द भिन्न राजपर्याय इन वगैरह षष्ठ्यन्त के बाद में हों तथा मनुष्यभिन्न राक्षस पिशाचादि वाचक षष्ठ्यन्त शब्द के बाद में हों तो नपुंसक होता है जैसेदासीसभम्, इनसभम्, प्रभुसभम्, पिशाचसभम् रक्षः सभम् इत्यादि किन्तु राज शब्द के बाद सभा शब्द स्त्रीलिङ्ग हो होता है जैसेराजसभा चन्द्रगुप्तसभा यहां पर चन्द्र गुप्त से राजविशेष का बोध होता है अतः स्त्रीलिङ्ग ही माना जाता हैं । (३) उपज्ञा और उप. क्रम शब्दान्त तत्पुरुष नपुंसक होता है उस वस्तु का आरम्भ करना मर्थ प्रकट करना हो तो, जैसे- पाणिन्युपज्ञम्, अष्टकम्, नन्दोपक्रमम् द्रोणः इत्यादि । पाणिनि ने सब से पहले अष्टाध्यायी व्याकरण को प्रकाशित किया । (४) उशीनर देश की संज्ञा में कन्था शब्दान्त तत्पुरुष नपुसक होता है जसे- सौशमिकन्थम्, बाल्हिकन्थम् ।
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