Book Title: Shivkosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Karunashankar Veniram Pandya

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Page 379
________________ तृतीय काण्डम् ३६६ लिङ्गादिनिर्णयवर्गः ५ 'सलोपान्त्यं त्रशब्दान्तं नो चेत् पूर्वेण बाधितम् । * संख्या पूर्वपदं रात्र शब्दान्तं समुदाहृतम् ॥३१॥ पात्राद्यन्तो यथा लक्ष्यं द्विगुरेकार्थवाचकः । द्वन्द्वैकार्थ समाहारोऽव्ययीभावस्तथैव च ॥ ३२ ॥ "संख्याऽव्ययात्परः पन्थाः समासान्तान्वितो भवेत् । (१) कर्ता से भिन्न अर्थ का वाचक अन शब्दान्त शब्द नपुंसक होता है, जैसे-गमनम्, रमणम् दानम्, कथनम् इत्यादि एवं अन् शब्दान्त शब्द भी नपुंसक होता है जैसे - सर्म, चर्म, वर्म, - नाम, धाम इत्यादि । (२) सकार और लकार उपान्त्य वाले त्र शब्दान्त शब्द नपुंसक होते है । जैसे- दात्रम्, पात्रम् वस्त्रम्, विसं, नम्, अन्धतमसम्, कूलम्, मूलम्, शूलम्, तूलम् इत्यादि किन्तु किसी पूर्व अपवाद से बाधित नहीं हो सका हो तो जैसेपुत्रः, वृत्रः इत्यादि । (२) संख्यावाचक शब्द पूर्वपद तथा रात्र शब्दान्त शब्द नपुंसक होता है । जैसे - त्रिरात्रम्, पञ्चरात्रम्, सप्तरात्रम् इत्यादि । ( ३ ) किन्तु एकार्थ वाचक तथा पात्रादि शब्दान्त द्विगु समास लक्ष्यानुसार नपुंसक होता है । जैसे- पञ्चपात्रम् त्रिभुवनम् इत्यादि किन्तु त्रिलोकी त्रिपुरी पञ्चपूली त्रिवली इत्यादि शब्द स्त्रीलिंग ही होता है । (४) एकार्थ वाचक समाहार द्वन्द्व समास तथा अव्ययीभाव समास नपुंसक होते हैं जैसे -पाणिपादम् अधिहरि, अधिगोपम्, अपदिशम् इत्यदि । (५) संख्यावाचक तथा अव्यय शब्द से परमें समासान्त प्रत्यययुक्त पथिन् शब्द नपुंसक होता हैं । जैसे- द्विपथम् त्रिपथम्, चतुष्पथम् विप, थम्, अपथम् कापथम् इत्यादि, किन्तु धर्मपथः अतिपन्थाः, सुपन्थाः यहां पर पुल्लिंग ही होता हैं क्योंकि संख्याव्ययादि नहीं हैं एवं समासान्त प्रत्यय नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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