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तृतीयकाण्डम्
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अव्ययवर्गः ५ सादृश्यार्थे 'यथेवैवं तथा वा व प्रकीर्तितम् ॥१८॥ विस्मयार्थे 'अहो हीचा नन्दे दिष्टया शमीरितम् । पुनश्चा प्रथमे भेदे निनिश्चय निषेधयोः ॥१९॥
अन्तरे चान्तरा मध्ये चान्तरेण तथैव च । परितः सर्वतो विष्वक् समन्तात्तु समन्ततः ॥२०॥ अभितो विश्वतोऽर्थे स्यात् मास्म मालं च वारणे।
(१) 'यथा इव', एवं, तथा, वा, व, ये सब सादृश्य अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (२) 'अहो ही 'ये दोनों आश्चर्य अर्थ में । (३) 'दिष्टया, शम्' ये दोनों आनन्द अर्थ में । (४) 'पुनः', वार वार तथा भेद अर्थ में (५) 'निः' यह निश्चय तथा निषेध अर्थ में । (६) अन्तरे; अन्तरा अन्तरेण ये तानों मध्य अर्थ में । (७) परितः सर्वतः विष्वक् समन्तात् समन्ततः अभितः ये सब सभी तरफ से इस अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । (८) मास्म मां अलं ये तीनों मना करना अर्थ में प्रयुक्त होते है।
॥ इति अव्ययवर्गः समाप्तः ।।
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