Book Title: Shivkosha
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: Karunashankar Veniram Pandya
View full book text
________________
तीयकाण्डम्
३४२
नानार्थवर्ग: ३ ................विभावसुः ॥२४३॥ सूर्येऽग्नौ स्याद्धिताशंसाऽहि दंष्ट्राऽऽशी, दिवौकशः। सारङ्गा लालसात्सुक्य प्रार्थने वर्षतर्णको ॥२४४॥
वत्सो, वसु धने रत्ने नाऽनले रश्मि देवयोः । बाढ साध्वोऽस्तु साधीयान् ज्यायो वृद्ध प्रश स्ययोः।२४५॥
पयोऽम्बुक्षीरयो, स्तेजः शुक्रदोप्ति बलादिषु । पद्याऽभिलाषयोछैन्दस्तैपः कृच्छादि कर्म यत् ।।२४६॥ वरीया नूरु वरयोः कनीयांस्तु युवाऽल्पयोः ।
(१) 'विभावसु' सूर्य पावक हारभेदमें पु० । (२) 'माशीस्' हिताऽऽशंसा (हित संभावना) अहिदंष्ट्रा (सर्प का दांत) में स्त्री० (आशी इकारान्त भी) । (३) 'दिवोकस् दिवोकस्' देव चातक रूप सारङ्ग (हिरण चातक मतङ्गन शबल) में बहुवचनान्त पु० । (४) 'लालस ललसा' उत्सुकता याचना तृष्णाधिक्य में स्त्री० पु० । (५) 'वत्स' तर्णक (गोवत्स) वर्ष पुत्र अहि में पु०, वक्षस् में नपुं (६) 'वसु' रै रत्न शाल वृद्धयौषध में नपुं०, मधुर में त्रि०, मनल भा देवविशेष योकत्र बक राजा में पु० । (७) 'साधीयस्' अतिशयित दृढ अतिशोभन में त्रि०(८) ज्यायस्'अतिवृद्ध अतिप्रशस्य में त्रि० (९) 'पयस्' जल दुग्ध में नपुं०। (१०) 'तेजसू' शुक्र दीप्ति बल प्रभाव पराक्रम धाम में नपुं० । (११) 'छन्दस्' पद्य अभिलाष वेद स्वैराचार में नपुं०, अकारान्त भी छन्द है । (१२) 'तपसू' लोकान्तर आदि व्रत धन में नपुं०, शिशिर ऋतु और माघ महिना में पु० । (१३) 'वरीयस्' योगभित् श्रेष्ठ वरिष्ठ अतियुवा में त्रि (१४) 'कनीयस्' अतियुवा अल्प अनुज में त्रि० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390