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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः ३: स्वैस्त्याशीः क्षेम पुण्येषु जोषं तूष्णों सुखार्थयोः । - लक्षणादौ च वीप्सायां तथा प्रतिविधौ प्रति ॥२७२।। अमी सह समीपेऽपि अहहाऽद्भुत खेदयोः । शीघ्राऽभिमुख साकल्य समीपो भयतोऽभितः ॥२७३।। मध्येऽन्तिकेऽपि समया एवंम् इत्थमिवार्थयोः।
॥ इति नानार्थवर्गः समाप्तः ॥ (१) 'स्वस्ति' मङ्गल आशीर्वाद पापनिर्णेजन आदि में (२) 'जोषम्' तूष्णीं अर्थ में सुख में प्रशंसा में लङ्घन में (३) 'प्रति' लक्षित हो जिससे ऐसे लक्षण में इत्थंभूताख्यान अर्थात् मुख्य सदृश प्रतिनिधि में भाग में व्याप्तुम् इच्छारूप वीप्सा में प्रतिविधि अर्थात् प्रतिदान में स्तोक में । (४) 'अमा' सहार्थ, समीप में । (५) 'अहह, अहहा' अद्भुत खेद परिक्लेश प्रहर्ष संबोधन में । (६) 'अभितस्, अभिमुख साकल्य समीप उभयतस में। (७) 'समया निकषा हिरुक्, मध्य में समीप में । (८) 'एवम्, इत्थम् और एव अर्थ में (धरणि कोष ने प्रकार उपमा इङ्गकार अवधारण में रह कर स्पष्ट किया है।) ।
।। इत्यनेकार्थ अध्ययवर्गः ॥
॥ नानार्थवर्ग समाप्त ॥
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