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तृतीयकाण्डम्
नानार्थवर्गः३ रै प्रयोजनयो रौँ' निवृत्तावपि वस्तुनि ॥१०५॥ संबद्धार्थे च शक्तिस्थे समथस्स्याद्धितेऽपि च । तावन्तो नियमाः संघो भगवान् गौतमप्रभुः॥१०६।। आधो गणधरश्चातुर्वण्ये तीर्थङ्करस्तथा । अरिहन्ताऽपि तीर्थानि स्तुर्येऽन्येऽप्यागमादयः॥१०७।। दशमीस्थो नष्टबीजे वृद्धौ वीथी सरण्यपि ।
इति थान्ताः । जीमूतवत्सरावब्दौ सूदस्तु व्यजने त्रिषु ॥१०८॥ वशाऽभिप्राययोश्छन्दो दायादो बन्धु पुत्रयोः । गोष्ठाध्यक्षोऽपि गोविन्द प्रसादोऽनुग्रहादिषु ।।१०९।।
त्रातर्याक्रन्दे आरावे दारुणे रुदिते रणे । (१) 'अर्थ' विषय याचना रै (धन) कारण दस्तु, शब्दों का अभिधेयार्थ निवृत्ति प्रवृत्ति में पुं० । (२) 'समर्थ' संबद्धार्थ में शक्तिस्थ में हित में त्रि० । (३) 'तीर्थ' नियम चतुर्विध संघ भगवान् गौतमप्रभु आदि गणधर चातुर्वर्ण्य तीर्थकर अरिहन्ता ए तीर्थ हैं और अवतार ऋषि जुष्ट (मिला हुआ) अम्बुपात्र उपाध्याय मन्त्री आगम गुरु में नपुं० । (४) 'दशमीस्थ क्षीणराग में वृद्धि में त्रि० । (५) 'वीथा' पङ्क्ति गृहाङ्ग रूपकान्तर वर्म में स्त्री० । इति थान्ताः । (६) 'अब्द' संवत्सर मेघ गिरिभेद मुस्तक (मोथा) पु० (७) 'सूद' सूप सूपकार व्यञ्जन में त्रिक। (८) 'छन्द' वश अभिप्राय में पुं० । (९) 'दायाद' बन्धु और पुत्र में पु० । (१०) 'गोविन्द' वासुदेव गवाध्यक्ष बृहस्पति में पुं० । (११) 'प्रसाद' अनुग्रह काव्य प्राण स्वास्थ्य प्रसत्ति में पुं० । (१२) 'आक्रन्द' रक्षार्थ रक्षको को पुकारने में भयङ्कर संग्राम रोदन में पु० ।
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