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तृतीयकाण्डम् ३०८
नानार्थवर्गः२ पोष्टधातोः, अथोयान पात्रे पोतः शिशावपि । मृते प्राण्यन्तरे प्रेतो हेस्तो भे-भकरादिषु । १०॥ केतु लक्ष्मपताकारु ग्ग्रहोत्पाताऽरिषु स्मृतः। उत्पातेऽग्नौ धूमकेतु जीमूतोऽद्रौ च वारिदे ॥१०३॥ तदेऽर्णवे सरस्वान् स्याद् गरुत्मान् तार्क्ष्य पक्षिणोः । भासे खगे शकुन्तोऽथ विवस्वान् देवसूर्ययोः ॥१०४॥
इति तान्ता माने सानुनि प्रस्थोऽस्त्री स्यादास्थाऽऽस्थानयत्नयोः। (१) 'पोत' यानपात्र छोटी नौका वहिन) शिशु गृहस्थान वासस् में पु० । (२) 'प्रेत' भूतान्तर में पु०, मृत में त्रि० । (३) 'हस्त' भ (नक्षत्र) इभकर हाथी के सूद] कर में सप्रकोष्ठकर में ऋक्ष आदि से भिन्न केश व्रात में पु० [ (४) 'केतु' लक्ष्म पताका रुज् ग्रह उत्पात अरि में पु० । (५) 'धूमकेतु' उत्पात ग्रहभेद अग्नि को कहते हैं पु० । (६) 'जीमूत' अदि धृतिकार देवताड़ देवताल] पयोधर [मेध] में पु०। (७) 'सरस्वान्' नद अब्धि में पु० रसिक में अन्यवत् वाणी स्त्री रत्न वाक् देवी गो नदी नदीभित् में स्त्री० । (८) 'गरुत्मान' पक्षी और गरुड में पु०। (९) शकुन्त' भास में अर्थात् भाः गोष्टकुक्कुट गध्र में और खग में पु० । (१०) 'विवस्वान्' देव में सूर्य में पु०, [विवस्वतपुर। का नाम 'विवरवता' स्त्री०, विवस्वदपत्य में वैवस्वती वैवस्वत: वैवस्वनम् त्रिलिङ्ग । इति तान्ता ।
(११) 'प्रस्थ' (एक सेर) म नभेद सानु उन्मितवस्तु में पुं० नपुं० । (१२) 'आस्था' आलम्बन आस्थान यत्न श्रद्धा में स्त्री
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