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तृतीयकाण्डम्
नानार्थवर्गः ३ विरोधाऽऽचरणेऽपि स्याद् व्युत्थानं प्रतिरोधने ॥१४१॥ सूर्ये 'प्रभाविनो राजा नृपे क्षत्रिय सोमयोः । सूचनोत्साह हिंसासुगन्धनं सुरर्शािल्पनि ॥१४२॥ सूर्ये च 'विश्वकर्माऽथ वर्मदेहप्रमाणयोः । ‘परमात्मनि बुद्धौ च प्रधानं मद्तुच्छयोः ॥१४३॥ वितानं त्रिषु विस्तार क्रत्वोन "साधनं गतौ । मारणे मृतसंस्कारे द्रव्योपपादनेऽपि च ॥१४४॥ "आतञ्चनं प्रतीवापे वेग तर्पणयो रथ ।
(१) 'घन' निरन्तर (सान्द्र) मूर्तिगुण (काठिण्य संघात) मूर्त (मूर्छाल) मेघ मुस्त विस्तार लोह मुद्गर में त्रि० । (२) 'व्यूत्थान' विरोधाचरण में प्रतिरोध में स्वतन्त्रता में नपुं० (विरुद्धमुत्थानम्)। (३) 'इन' सुर्य नृप पति में पुं० । (४) 'राजा' (न्) नृप क्षत्रिय चन्द्र प्रभु यक्ष शक में पुं० । (५) 'गन्धन' सूचन उत्साह हिसा प्रकाशन में नपुं० । (६) विश्वकर्मा (न्) सुरशिल्पी सहस्रांशु (मुनिभित) में पुं। (७) 'वर्म' देह प्रमाण अति सुन्दराकृति में नपुं० । (८) 'प्रधान' महामात्र प्रकृति परमात्मा प्रज्ञा में नपुं, उत्तम में तो एकवचनान्त ही होता है। (९) 'वितान' यज्ञ उल्लोच विस्तार में पुं नपुं वृत्तविशेष में नपुं, मंद में तुच्छ में त्रि. (१०) 'साधन' गतिमारण मृतसंस्कार सैन्य सिद्धौषध निर्वतन उपाय मेढ़ दापन अनुगम धनोपपादन में नपुं० । (११) 'आतञ्चन' दध्यादिभाव हेतुक दुग्धादि में तकादि प्रक्षेप अथवा निक्षेत्र मात्र को संज्ञा प्रतीवाप है प्रतीवाप में जवनवेग में आप्यायन तर्पण में नपुं० ।
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