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तृतीयकाण्डम्
नानार्थवर्गः ३ वात्यायां ना तु वातूल त्रिषु वातासहे बैलिः । करोपहारयो दैत्ये ना स्त्री प्राण्यङ्गजा सखी ।।२१९॥ सेत्वाबली स्त्रियामाली स्त्रिषु स्याद् विशदाशये । वेला वाय॑म्बु विकृतौ मर्यादा कालयोरपि ॥२२०॥ पालिरस्त्यङ्क पक्तयादौ कीलः शङ्कादिषु द्वयोः । कृतान्ताऽनेहसौ कालः कराल स्तुङ्ग दन्तुरौ २२१॥
चेलं वस्त्रेऽधमे "स्थूलं जडेऽपि त्रिषु, केवलम् । निर्णीतेऽथ त्रिलीङ्गं तु स्यादेक कृत्स्नयोः, फैलम्॥२२२॥ .- में रभस मेदिनीकारों ने अनपुंसक कहा है) अशोक पादप वृक्ष
में पु० । (१) 'वातुल' वात्या (ववण्डर) पु. (क्षीरस्वामि के मत से 'वातल') वातासह में त्रि. । (२) बल दैत्यप्रभेद कर चामरदण्ड (यम) उपहार में पु० जरा से लथचर्म में ग्रहदारुप्रभेद (सोढी) उदराऽवयव में स्त्री० । (३) 'आलि' (आलो) क्यस्या (सखी) सेतु पंक्ति में स्त्री०, विशदाशय में त्रि० । (४) 'वेला' समुद्रविकृति समुद्र तट काल सीमा आक्लिष्टमरण (सुख से मरणा) रोग ईष्टभोजन में स्त्री० । (५) 'पालि (पाली)' (पाल वान्धना) यूका सश्मश्रुयोषित में स्त्री०; अङ्क प्रभेदपंक्ति अश्रि (अस्ति) कर्णलता प्रस्थ प्रदेश छात्रादि देय में त्रि०। (६) 'कीलः (कीला) शंकु कफोणि ज्वाला स्तम्भ लेश स्थाणु में पु० स्त्री० । (७) 'काल' समय महाकाल मृत्यु यम कृष्ण में पु० । (८) 'कराल' दन्तुर तुङ्ग भोषण में त्रि०, कृष्णकुटेरक में नपुं०; सर्जरसतैल में पु० । (९) 'चेल' वस्त्र अधम में त्रि० । (१०) 'स्थूल' क्ट निष्प्रज्ञ पीवर में त्रि० । (११) 'केवल' निर्णीत में नपुं०, एक कृत्स्न में त्रि० । (१२) 'फल' समय हेतु समुत्थ फलक व्युष्टि लाभ जातीफल कक्कोल (शीतल मिर्च) वाणान में नपुं० ।
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