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तृतीयकाण्डम् ३१८
नानार्थवर्ग:३ 'आत्मा बुद्धौ धृतौ यत्ने स्वभावे ब्रह्मवर्मणोः ॥१४५
आच्छादनं संपिधाने वस्त्रेऽपवृति मात्रके । कौलीनमपवादेऽपि पशु पक्ष्य हि योधने ॥१४६॥
व्यन्जनं श्मश्रु निष्ठानाऽवयवेष्वपि लान्छने । किन्जलकेऽणा वक्षि लोमिन "पक्षमाऽथ सङ्गतौ रते ।१४७
मथुनं वाणिनी दूती नर्तकी फलपुष्पयोः । "प्रसूनं न्यून हीनेस्त ऊने गहथे........इति नान्ताः ।
...............ऽथकच्छपी" ॥१४८॥ का वीणा प्रभेदेऽग्नि रीशविष्ण वृषाकपिः ।
(१) आत्मा (न्) वृद्धि धृति यत्न स्वभाव ब्रह्म परमात्मा वर्म कलेवर चित्त में और व्यावर्तन में पुं० । (२) 'आच्छादन' संपिधान वस्त्र अपवृतिमात्र में अर्थात छुपने छुपाने के साधनों में नपुं०। (३) 'कौलीन' लोकवाद में पशु अहि पक्षियों के युद्ध में नपुं० । (४) 'व्यञ्जन' निष्ठान अर्थात् तेमन (व्यजन) में श्मश्रु के अवयव में चिह्न में नपुं० । (५) पक्षम' सूत्रादि सूक्ष्मांश में किंजल्क [केसर में अक्षिलोम में नपुं० । (६) 'मिथुन' संगत [संबन्ध में सुरत युग्म में राशि में नपुं० । (७) 'वाणिनी' नर्तकी दूतीमत्ता अथवा विदग्धा स्त्री में स्त्र ०, वाणिनी और वाहिनो शब्द मेदिन्य दि कोष में पवर्गीयादि हेमकोश में अन्तस्थादि देखे जाते हैं । (८) 'प्रसून' फल और पुष्प में नपुं० । (९) 'न्यून' तथा हीन गद्य और ऊन में नपुं० । इति नान्ताः । (१०) 'कच्छपी' डुलि वल्लकी भेद क्षुद्रगदान्तर छोटी गदा] में स्त्री० । [११) 'वृषाकपि' जातवेदाः [अग्नि] शंकर विष्णु में पु० ।
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