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तृतोयकाण्डम् ३०७
नानार्थवर्गः ३ सद भूजेंना 'शितिः श्वेते मेचके निशिते त्रिषु । मनापि स्फुटयो र्व्यक्तो दृष्टान्तस्तु निदर्शनम् ॥९८॥
शास्त्र क्षत्ता क्षत्रियायां शूद्राद् द्वाः स्थेऽपि सारथौ । हरौ हरे 'जिनेऽव्यक्ताऽजितौ मूर्तस्तु तक्षिणि ॥९९॥
भूपालभूधरौ भूभृत् स्त्रोपुष्पे मासयो ऋतुः । स्याद्भूपालेऽपि मूर्धाऽभिषिक्तो राजन्यमण्डले ।१०।
स्थपति नर्ना सुतेः पुत्रे पार्थिवे तनया सुता । सूते हस्तिपके यन्ता भैा स्वामिनिना त्रिषु ॥१०१॥ (१) 'शिति' भूज में पु०, श्वेत मेचक निशित (काल अर्थात् सर्प में) त्रि० । (२) 'व्यक्त' मनोषि [मनोषिन) और स्कुट में त्रि० । (३) 'दृष्टान्त' निदर्श (उदाहरण) शास्त्र मरणमें पु० (४) 'क्षत्ता' (क्षत) शूद्र से क्षत्रिया में उत्पन्न को द्वारपाल को सारथि को भजिष्यातनय (दासीपुत्र) नियुक्त प्रजासूद को भी कहते हैं पु० । (५) 'अजित अव्यक्त' हरि हर जिन में पु०, अनिर्जित में त्रि०, महत् (महान) आदि आत्मा में नपुं०. अस्फुट में त्रि० । (६) सूत' सारथि तक्षा क्षत्रिय से ब्राह्मणीसुत में, बन्दी पारद में पु०, प्रसूत प्रेरित में त्रि० । (७) 'भूमृत्' से तृप अदि समझे जाते है पु० । (८) ऋतु स्त्रो पुष्प वसन्तादि दो दो महिने धोर में पु० । (९) 'मूर्धाभिषक्त' भूपाल में 'मन्त्री में क्षत्रिय में पु० । (१०) 'स्थपति' कञ्चुकी शिल्पिभेद में पु०, सत्तम [अतिश्रेष्ठ में त्रि० । (११) 'सुत' पुत्र में पार्थिव में पु० स्त्री अपत्य में 'सुता' तनया बोधक है स्त्रो० । (१२) 'यन्ता' [यन्त' हस्तिपक महावत सुत [सारथी] पु० । (१३) 'भर्ता' स्वामी अर्थ में पु०, पोष्टा (पोष्ट्र) धाता (धात) में त्रि० ।
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