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सृतीयकाण्डम्
३१२ नानार्थवर्ग:३ स्कन्ध स्तरू प्रकाण्डादौ स्नुही लेपोऽमृतं सुधा १२०
मर्यादायां प्रतिज्ञायां संधाऽथ प्रार्थने चरे। प्रणिधि बुध वृद्धौ च पण्डितेऽप्यधि विले ॥१२१॥ परिच्छेदे 'विधि दैवे विधानेऽपि 'विधुर्हरौ। सोमेऽश्वभारयोः पर्याहारे "विवधवीवधी ॥१२२॥
बन्धे विनश्वरे दोषोत्पादे मुख्याऽनुयायिनि । बाले च प्रकृतस्याऽऽस्ते "योऽनुबन्धोऽनिवर्तने ॥१३॥ अर्थात् वमन गजकर शीकर में पुं०, सरित् (नदी) में स्त्रो० । (१) 'स्कन्ध' तरु प्रकाण्ड काय मद्रादि छन्दो भेद संपरा य (संसार युद्ध) समुदाय (समूह) अंस नृपति में पुं० । (२) 'सुधा' स्नुही (थुहर) टेप (रूण्डिका चूर्ण) अमृत में स्त्री० । (३) 'संधा' प्रतिज्ञा मर्यादा में स्त्री० । (४) 'प्रणिधि' प्रार्थना चर में पुं०, (अवधान में भी) । (५) 'बुध' चन्द्रसुत में पुं०, पण्डित में त्रि० । (६) 'वृद्ध' जीर्ण प्रवृद्ध ज्ञ में त्रि० । (७) 'भवधि' अवधान सीमा का अर्थ 'अण्डकोश' भी है काल बिल में पुं० । (८) 'विधि' नियति काल विधान परमेष्ठी (ष्ठिन् ) में पुं० (विरही को व्यथित करने वाला) । (९) 'विधु' शशाङ्क कपुर हृषीकेश राक्षस में पुं०। (१०) 'विवध वीवध' स्कन्धवाह्य काष्ठ जिस में दोनो ओर शिक्ये बंधे हों ऐसी जो (विहंगिका भारयष्टि) जिसे हिन्दी में 'कावड़' कहते हैं ऐसे पर्याहार में और पर्याहार संबन्धित मार्ग में भार में पुं० । (११) 'अनुबन्ध' बन्ध में विनश्वर में दोषोत्पाद में मुख्याऽनुयायी बाल में प्रकृत के अनिवर्तन में पु० ।
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