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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थधर्गः २ 'स्थूणा स्तम्भेऽपि सा च हरिणः पाण्डुरे त्रिषु । त्रिषु ग्रामाधिपे श्रेष्ठे नापिते ग्रामणीः पुमान् ॥५८॥ समरेऽस्त्री कणे कोणे नापिते ना रेणो मतः । क्षणो व्यापारहीनत्वे मुहूर्तोत्सव पर्वसु ॥५९।। कार्षापणे वराटानां माने मूल्ये घणे पणः। द्यूते विक्रय्य शाकादे बद्धमुष्टो भृतौ ग्लहे ॥६॥ मौर्य प्रधानरूपादि सन्ध्याचा वृत्ति एज्जुषु । शुक्ल सूदेन्द्रिय त्याग सत्त्व सौर्यादि धीषु च ।६१॥ गुणः पोऽग्नि मन्थाने 'श्रीपर्ण हस्तिनो भयोः। करेणु द्रविण वित्ते काश्चने च पराक्रमे ॥६२॥
(१) 'स्थूगा' गृहस्तम्भ और सूर्मी अर्थ में स्त्री० । (२) 'हरिण पाण्डु और शवल अर्थ में त्रि०। (३) 'ग्रामणी' ग्रामनायक श्रेष्ठ नापित अर्थ में पु० । (४) 'रण' शब्द समर कण कोण अर्थ में पु.नपुं०, नापित में पु० । (५) 'क्षण' व्यापारहीनत्व
और मुहूर्त उत्सव पर्व अर्थ में नपुं० । (६) 'पण' कार्षापण सिक्का वराट क मान मल्य धन शाकादि बेचनार बद्धमुष्टि भृति ग्लह (जुआ) अर्थ में पु० । (७) 'गुण' मौर्वी (धनुर्गुण) अप्रधान रूपादि सन्ध्यादि वृत्ति रज्जु शुल्क सूद इन्द्रिय त्याग सत्त्व सौर्यादि धी अर्थ में पु० । (८) 'श्रीपर्ण' कमल अग्निमन्थ (अरणि) अर्थ में नपुं०, 'श्रीपर्णी' कुम्भी गम्भारी अर्थ में स्त्रो० । (९) 'करेणु' हस्तिनी अर्थ में स्त्री०, इभ में पु० (रन्तिदेवतो "करेगुश्च गरेणुश्च करिणी कर्णिकारयोः' कहे गये हैं ।) (१०) 'द्रविण' वित्त काञ्चन पराक्रम अर्थ में नित्य नपुं०
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