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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवगः ३
मूले लग्नेकचे माझ्या मिष्टि' यगेच्छयोरपि ॥ ३८ ॥ ज्ञानेऽक्षिण दर्शने दृष्टि बहूनि त्रिषु निश्चिते । सृष्टिः संशय कालाऽल्प सूक्ष्मैलासुत्रुटि: स्त्रियाम् ॥३९॥ अरिष्टं सूतिकागारे आसवादौ शुभेऽशुभे । समृद्धि फलयो युष्टि दैवते दिष्ट मद्वयोः ||४०|| तक्षाऽऽदित्य भिदोस्त्वष्टो देवशिल्पिनिना कटुः । रसे कार्येऽद्वयोस्तीक्ष्णे मत्सरे त्रिषु कोटयेः ॥ ४१ ॥ संख्या" भेदे प्रकर्षे च कोणेऽग्र धनुषः स्त्रियः । खतौ शिपिविष्टः स्याद्दुश्चर्मणि महेश्वरे || ४२ ॥
( १ ) लग्नकच ( केश समूह ) मूल मांसी में 'जटा ' स्त्री०, लक्ष (पीपल विशेष ) में 'जटो' । (२) यागमत अभिलाष ( संग्रह श्लोक) में 'इष्टि' खो० । (३) ज्ञान अक्षि दर्शन अर्थ में 'दृष्टि' स्त्री० । (१) प्राज्य अतिशय निश्चित अर्थ में 'सृष्टि' स्त्री० । (५) संशयकाल अल्प सूक्ष्मैला अर्थ में ' त्रुटि' खी० । (६) सूतिकागार आसन (मथ) शुभ अशुभ तक्र मरणचिह्न अर्थ में 'अरिष्ट, नपुं०, लशुन निम्त्र फेनिल काक कङ्क में पु० । (७) फल समृद्धि अर्थ में 'व्युष्टि' स्त्रो० । (८) दैव (भागधेय भाग्य) अर्थ में 'दिष्ट' नपुं. 'काल' पु० । (९) तक्षा (तक्षन् ) आदित्यभित् देवशिल्पी अर्थ में 'स्वष्टा ( त्वष्टृ ) ' पु० । (१०) रस (मात्र) अर्थ में 'कटु' पु० अकार्य में नपुं०, तद्वान् में सुगन्धि मत्सर स्वरो में त्रि०, (११) कटुरोहिणी लता राजिक में स्त्री० । (१२) संख्याभेद प्रकर्ष अश्रि (कोण) धनुष के अग्र अर्थ में 'कोटी' स्त्री० । (१३) खलति दुधम (न) शिव शौरी (विष्णु आदि) अर्थ में 'शिपिविष्ट ' पु० ।
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