Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 9
________________ प्रस्तुति जैन-साधना-पद्धति में अनुप्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रेक्षा से सत्य उपलब्ध होता है। अनुप्रेक्षा से पुराने संस्कारों का परिवर्तन होता है। धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान दोनों के साथ चार-चार अनुप्रेक्षाएं नियोजित हैं१. धर्म्यध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं• एकत्व अनुप्रेक्षा • अशरण अनुप्रेक्षा • अनित्य अनुप्रेक्षा • संसार अनुप्रेक्षा २. शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं • अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा • अशुभ अनुप्रेक्षा • विपरिणाम अनुप्रेक्षा • अपाय अनुप्रेक्षा आगम में एक साथ बारह अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख नहीं है। उत्तरवर्ती साहित्य में उनका समवेतरूप उपलब्ध है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में बारह अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख किया है। आचार्य कुन्दकुन्द का ‘बारस अणुवेक्खा', स्वामीकुमार का 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' आदि अनेक ग्रन्थ बारह अनुप्रेक्षा के विषय में उपलब्ध हैं। उपाध्याय विनयविजयजी ने उसी परम्परा को विकसित कर 'शान्तसुधारस' नामक गेय काव्य की रचना की। इसमें सोलह अनुप्रेक्षाएं हैं। मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य-ये चार अनुप्रेक्षाएं पातंजल योगदर्शन तथा बौद्ध-साहित्य में हैं। जैन-साहित्य में ये विकीर्णरूप में हैं, पर अनुप्रेक्षा के आकार में इनका वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ का रचनाकाल वि.सं. १७२३ और रचनास्थल गन्धपुर है। ग्रन्थकार का परिचय ग्रन्थ के प्रशस्ति पद्यों में इस प्रकार है हीरविजयसूरी के दो शिष्य थे-वाचक सोमविजय और वाचक कीर्तिविजय। ये दोनों सगे भाई थे। कीर्तिविजय के शिष्य थे उपाध्याय विनयविजयजी।

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