Book Title: Sansar aur Samadhi Author(s): Chandraprabhsagar Publisher: Jityasha FoundationPage 14
________________ संसार का परिदर्शन गहराई से करने के बाद ही किसी ने उसकी अध्रुवता और भंगुरता के गीत गाये होंगे। संसार को गहराई से झांकते समय उसे अपने विचारों को कसौटी पर कसते हुए ही यह विचार उठा होगा—'यह जटिल संसार क्या है?' संसार के प्रति यह एक जिज्ञासा है। यह शास्त्र नहीं है, वरन् व्यक्ति के चिन्तन-केन्द्र में होने वाले उथल पुथल की एक अभिव्यक्ति है। संसार वह है, जहां संसरण होता है, हलन-चलन होती है। संसरण यानी सरकना। संसरण को समझने के लिए आप अपनी चाल को समझ लें। आप चलते हैं दो पैरों के सहारे। आगे कदम बढ़ाने के लिए पीछे का कदम उठाना होगा। जो कदम पीछे था, वह आगे हो गया और जो आगे था, वह पीछे हो गया। कदम का आगे बढ़ना जन्म है और पीछे छूटना मृत्यु है। इन दो कदमों के बीच ही, जन्म और मृत्यु के बीच ही यह शरीर है, यह जीवन है। । यह चलना शाश्वत नहीं है। जैसे चलना अध्रुव है, अशाश्वत है, अस्थिर है, वैसे ही है यह संसार। संसार एक संसरणशील चाल है। यहां हर पल उथल-पुथल-हलचल मची रहती है। इसीलिए तो संसार को समुन्दर की उपमा दी जाती है। वह क्यों? क्या समुन्दर संसार की तरह पापी है? पुण्यात्मा है? नहीं, समुन्दर संसार की तरह ही संसरणशील है। वह लहरों में सरकता है। भाप भी वही है, बादल भी वही है, बारिस भी वही है। सागर की तरह ही है संसार। इसलिए दोनों को एक दूसरे की उपमा दी जाती है। ____ मुझे संसार के बारे में कोई बहुत गहनतम अनुभव नहीं है। क्योंकि मैं सांसारिक नहीं हूं। मैंने अपना कोई संसार बसाया नहीं। इसलिए मैं सांसारिक नहीं हूं। पर किसी और के बसाये-बनाये संसार में मैं रहा हूं। पक्षी आखिर जनमता तो किसी-न-किसी नीड़ में ही है। वह नीड़ ही तो संसार है। इस नाते संसार में कोई प्राणी ऐसा नहीं है, जो यह कह सके कि संसार के बारे में वह कुछ नहीं जानता। वह जानता तो है, पर मुकरता है। यों करके व्यक्ति वास्तव में अपनी जन्म-घटना को झुठला रहा है। हकीकत तो यह है कि संसार की कहानी जितनी एक वैरागी को मालुम होती है, उतनी किसी रागी को नहीं। रागी तो एक घर की कहानी जानता है और वैरागी घर-घर की। मझे ही ले लीजिये। रोजाना कितने लोगों से मुझे मिलना पड़ता है। हजारों घरों में तो मैं जा आया हूं और हजारों लोगों ने मुझे अपनी-अपनी मनोगाथाएं सुनाई हैं। मैं भी लोगों को सान्त्वना तो देता हूं, पर सान्त्वना का रहस्य भी मैं जानता हूं। सान्त्वना पाकर लोग चले जाते है, पर मेरा मन गुनगुनाता है—'यह जटिल संसार क्या है?' संसार और समाधि -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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