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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
यथा भजना = अनेकान्तो भजते
सर्ववस्तूनि तदतत्स्वभावतया ज्ञापयति तथा भजनाऽपि अनेकान्तोsपि भजनीयः अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इत्यर्थः । नयप्रमाणापेक्षया 'एकान्तश्चानेकान्तश्च' इत्येवं ज्ञापनीयः । एवं च भजना = ऽनेकान्तः सम्भवति, नियमश्च = एकान्तश्च, सिद्धान्तस्य " रयणप्पभा सिआ सासया सियाsसासया" [जीवा० प्रतिप० ३-१-७८] इत्येवमनेकान्तप्रतिपादकस्य " दव्वट्टयाए सासया, पज्जवट्टयाए असासया [ ]" इत्येवं चैकान्ताभिधायकाविरोधेन ।
प्रकार करना, इसके उपाय का परिज्ञान जैसे असत्यवादी को नहीं होता वैसे ही एकान्तवादियों को भी नहीं होता, इसलिये वे अज्ञानी कहे जाते हैं । इस प्रकार अनेकान्तवाद की स्थापना हुयी ||२६||
क्या अनेकान्त में भी अनेकान्त है ? हाँ
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है अतः
प्रश्न आपने कहा कि नियमतः अनेकान्त सर्ववस्तुव्यापक है, अनेकान्त भी एक वस्तु उस में भी अनेकान्त होना चाहिये, जब अनेकान्त में भी अनेकान्त मानेंगे तो उस से एकान्त ही फलित होगा । यानी एकान्तवाद गला पकड़ लेगा । यदि इस के भय से अनेकान्त में अनेकान्त नहीं मानेंगे तो उस की सर्ववस्तुव्यापकता का भंग क्यों नहीं होगा ?
उत्तर :- इसके उत्तर में कहते हैं
मूलगाथार्थ :- जैसे भजना सर्व द्रव्यों को विभक्त करती है वैसे ही भजना में भी विभजन समझ लेना । अतः सिद्धान्त का विरोध न हो इस प्रकार से भजना नियमरूप भी हो सकती है ||२७||
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जैन सिद्धान्त में 'ऐसा है ऐसा नहीं भी है' इस ढंग से विकल्पों को सूचित करने के लिये बार बार 'भजना' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है । परस्पर विरुद्ध विकल्पों का प्रस्तुतीकरण यही स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद है । अतः ग्रन्थकार ने भी यहाँ अनेकान्त के लिये भजनाशब्द का प्रयोग किया है । वे कहते हैं कि भजना यानी अनेकान्त, जैसे प्रत्येक द्रव्यात्मक अर्थात् द्रव्यपर्यायोभयात्मक वस्तुओं का विभजन करती है, विभजन यानी यह सूचित करना कि प्रत्येक वस्तु कथंचित् तत्स्वभाव है और कथंचित् अतत्स्वभाव है; ठीक इसी ढंग से भजना का भी विभजन समझ लेना चाहिये । मतलब यह है कि अनेकान्त में अनेकान्त होता है । जैसे देख लिजिये नय की अपेक्षा एकान्त भी होता है और सर्वनयनिवषयग्राहक प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त भी होता है । इस प्रकार जो भजना यानी अनेकान्त है वह कथंचिद् नियमस्वरूप यानी एकान्तात्मक भी हो सकता है । इस में लेशमात्र सिद्धान्तविरोध नहीं है क्योंकि सिद्धान्त के सूत्रों में अनेकान्त का और अनेकान्तगर्भित एकान्त का, दोनों का यथासम्भव दर्शन होता है । जैसे देखिये जीवाजीवाभिगमसूत्र में एक प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यह 'रत्नप्रभा पृथ्वी कथंचित् शाश्वत है कथंचिद् अशाश्वत है" । इस सूत्र में स्पष्ट ही अनेकान्त दिखाई देता है । उसी विषय में 'शाश्वत है तो कैसे और अशाश्वत है तो कैसे' इस पृथक् पृथक् प्रश्नों के उत्तर में एक सूत्र में कहा गया है कि 'द्रव्यार्थता से शाश्वत है, पर्यायार्थता से अशाश्वत है।' यहाँ स्पष्ट ही अनेकान्तगर्भित एकान्त का दर्शन होता है । चूँकि पहले जो शाश्वत अशाश्वत का अनेकान्त दिखाया गया है उन्हीं के एक एक अंश को यहाँ गृहीत किया है इसलिये अनेकान्तगर्भता स्पष्ट होती है, तो दूसरी और द्रव्यार्थता से सिर्फ शाश्वत ही कहा है न कि शाश्वताशाश्वत, तथा पर्यायार्थता से सिर्फ अशाश्वत ही कहा है न कि शाश्वताशाश्वत, अत: एकान्त भी यहाँ झलकता है । इस प्रकार सिद्धान्त के सूत्रों में अनेकान्त का तथा अनेकान्तअंशभूत एकान्त का, दोनों का दर्शन उपलब्ध होने से, कह सकते हैं कि अनेकान्त में भी अनेकान्त मानने पर सिद्धान्त के साथ कोई विरोध नहीं है; तथा अनेकान्त की व्यापकता में कोई क्षति भी नहीं रहती और एकान्तिक एकान्त को भी अवकाश नहीं रहता ।
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