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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् द्विविधं सामान्यमनुगतज्ञानकारणम् । नित्यद्रव्यवृत्तयोऽन्त्या विशेषा अत्यन्तव्यावृत्तबुद्धिहेतवः । अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानाम् ‘इह' इतिप्रत्ययहेतुर्यः सम्बन्धः स समवाय एको व्यापकश्च । अत्र च पदार्थषट्के द्रव्याणि गुणाश्च केचिनित्या एव, केचित् त्वनित्या एव । कर्म अनित्यमेव । सामान्यविशेषसमवायास्तु नित्या एवेति पदार्थव्यवस्था । ततश्चैतत् शास्त्रं तथापि मिथ्यात्वम्, तत्प्रदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणबाधितत्वात् ।
* कणादोक्त्तपदार्थव्यवस्था न संगता * यतश्चतुःसंख्यं पृथिव्यादिद्रव्यं परमाणुरूपं यन्नित्यमुपवर्णितम् तदसंगतम्, एकान्ताऽक्षणिकत्वे क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् तल्लक्षणं सत्त्वं ततो व्यावर्त्तते, ततश्च असत्त्वमेव तस्य । यदि च स्थूलकार्यद्रव्यकारणभूतानामणूनां तज्जनकैकस्वभावता तदा तत्कार्याणां सकृदेव सर्वेषामुत्पत्तिप्रबनता है । विशेषपदार्थ नित्य परमाणु-आकाशादि द्रव्यों में रहता है, वह अंतिम विशेषरूप यानी अंतिमभेदकतत्त्वरूप होते हैं । तात्पर्य, दो विशेषों का भेदक कोई अन्य विशेष नहीं होता किन्तु वे अन्तिम विशेष स्वतः भिन्न होते हैं । इन विशेषों के प्रभाव से ही उन नित्य द्रव्यों का भेद सुरक्षित रहता है और योगियों को नित्य द्रव्यों में भेदबुद्धि होती है ।
__'समवाय' सम्बन्धात्मक पदार्थ है और वह सर्वत्र व्यापक एवं एक ही है । १समवायी द्रव्य और समवेत द्रव्य, गुण और द्रव्य, ३क्रिया और द्रव्य, ४जाति और जातिमान् तथा ५विशेष-विशेषवान् -- इतने आधेयआधारभूत युगल पदार्थ परस्पर अयुत यानी अपृथग्भाव से एक-दूसरे को सदा चिपक कर ही रहने वाले हैं और उन को सदा चिपक कर रखने वाला जो सम्बन्ध है उसी को समवायसम्बन्ध कहा गया है। उसी के प्रभाव से 'यहाँ वस्त्र में श्वेतरूप' इत्यादि प्रतीतियाँ हो सकती हैं ।
ये छ: पदार्थ हैं, उन में कुछ द्रव्य और गुण नित्य होते हैं जैसे परमाणु और उस का अणुपरिमाण इत्यादि । कुछ द्रव्य और गुण अनित्य होते हैं जैसे दीपक और उसका उष्णस्पर्श इत्यादि । कर्म(क्रिया) तो सब अनित्य ही हैं । सामान्य, विशेष और समवाय ये तीनों नित्य ही होते हैं । नित्य यानी अनुत्पन्न पदार्थ
और अनित्य यानी सोत्पत्तिक पदार्थ । यह पदार्थव्यवस्था जो वैशिषिकशास्त्र में बतायी गयी है, उस में यद्यपि नित्य और अनित्य अथवा द्रव्य और पर्याय के अंगीकार से द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक उभय नय का आशरा लिया गया है फिर भी उस में मिथ्यात्व तदवस्थ ही रहा हुआ है, क्योंकि इस प्रकार बताये गये एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य छ पदार्थ प्रमाणसिद्ध नहीं किन्तु प्रमाणबाधित है।
* वैशेषिक मत समालोचना का प्रारम्भ * कणादभाषित तत्त्वव्यवस्था यानी षट्पदार्थी कैसे प्रमाणबाधित है इसकी स्पष्टता अब व्याख्याकार विस्तार से दिखाना चाहते हैं । अतः प्रारम्भ में कहा है कि परमाणुस्वरूप पृथ्वीआदि चार द्रव्यों को नित्य बताया है वह संगत नहीं है। कारण, एकान्त अक्षणिकत्व (यानी नित्यत्व) पक्ष में परमाणु के द्वारा क्रमशः अथवा एकसाथ अर्थक्रिया सम्पादन मानने में विरोध प्रसक्त्त है, फलतः अर्थक्रियारूप लक्षण की निवृत्ति से परमाणु में सत्त्व की भी व्यावृत्ति प्रसक्त होती है। इस तरह परमाणु में असत्त्व ही सिद्ध होगा । यदि कहें कि-'स्थूल कार्यद्रव्य के कारणभूत अणु द्रव्यों में ऐसा स्थूलकार्यजनकत्वरूप ही स्वभाव है, 'क्रमश: या एकसाथ' ऐसा कोई तत्त्व स्वभाव में अन्तर्भूत नहीं है, जनकस्वभावता होने से असत्त्व भी प्रसक्त नहीं हो सकता' -- तो यहाँ एक साथ सर्वकार्यद्रव्य की उत्पत्ति हो जाने का अतिप्रसंग दुर्निवार रहेगा, क्योंकि हर एक कार्यद्रव्य की जनकता का स्वभाव
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