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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् सम्भवात् । तस्मादेकस्यैव सामग्रीभेदवशात् तथाप्रतिभासाऽविरोधः।
कारणस्य च कार्यात्मनोत्पत्तौ न किञ्चिदपेक्षणीयमस्ति यतस्तथोत्पित्सुस्वभावता न भवेत् । अत एव मृदादिभावो घटस्वभावेन नश्वरः कपालस्वरूपेण चोत्पत्तौ तिष्ठतीति स्वभावत एव नश्वर उत्पित्सुः स्थास्नुश्च अन्यतमापाये पदार्थस्यैवाऽसम्भवात् त्रितयभावं प्रत्यनपेक्षत्वाच्च । न हि उत्पन्नः पदार्थः किञ्चित् स्थितिं प्रत्यपेक्षते स्थित्यात्मकत्वादुत्पादस्य । न चावस्थित उत्पत्तौ किञ्चिदपेक्षते उत्पत्तिस्वभावत्वात् स्थितेः। न च विनष्ट उत्पत्तिं प्रति हेत्वन्तरापेक्षः विनाशस्योत्पत्त्यात्मकत्वात् । ततः पूर्वापरस्वभावपरित्यागावाप्तिलक्षणं परिणाममासादयन् भावो व्यवतिष्ठत इति प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरमेतत् । अतः शब्द-विद्युत्-प्रदीपादेरपि निरन्वयविनाशकल्पनाऽसंगतैव । तेषामादौ स्थितिदर्शनात् अन्तेऽपि तत्स्वभावानतिक्रमात् । न हि भावः स्वं स्वभावं परित्यजति प्रागपि तत्स्वभावपरित्यागप्रसक्तेः। अन्ते च क्षयदर्शनात् प्रागपि नश्वरस्वभाववत् आदावुत्पत्तिसमये स्थितिदर्शनादन्ते स्थितिः किं नाभ्युपेयते ? मानने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, अतः अग्नि को अनुष्ण कहने में भी स्याद्वाद के ढंग से कोई दोषलेश नहीं है। निष्कर्ष, एक ही वस्तु के बारे में भिन्न भिन्न सामग्री के जरिये भिन्न भिन्न प्रतिभास भी हो सकते हैं और वस्तु एक भी हो सकती है - इस में कोई विरोध नहीं है।
मिट्टी आदि भावों की निर्बाध त्रयात्मकता स्याद्वादसिद्धान्तानुसार उपादान कारण स्वयं ही कार्यरूप से उत्पन्न होता है, इस में ऐसे किसी की पराधीनता नहीं होती जिस की प्राप्ति के असम्भव से कार्योत्पत्ति रुक जायेगी। अतः कारण में कार्यरूप से उत्पत्तियोग्यतामय स्वभाव न होने की शंका ही निरवकाश है। इसी लिये मिट्टी आदि भाव त्रयात्मक सिद्ध होता है, क्योंकि मिट्टी आदि भाव घटरूप से नाशवंत, कपालस्वरूप से उत्पत्तिशील हो कर भी मिट्टीरूप में ध्रुव रहता है - इस प्रकार स्वभावतः पदार्थमात्र नाशवंत-उत्पतिशील-ध्रुवस्वभाव त्रयात्मक होता है, एक के भी विरह में पदार्थ के स्वतत्त्वका भंग फलित होगा। जो विनाशादि तीन प्रक्रिया से निरपेक्ष होता है वह शशसींग की तरह असत् होता है। कोई भी उत्पन्न पदार्थ अपनी स्थिति के लिये परसापेक्ष अर्थात् परमुखदर्शी या पराधीन नहीं होता, उस की उत्पत्ति स्थिति के साथ तादात्म्यापन्न ही होती है। ऐसे ही ध्रुव पदार्थ अपने नये पर्याय से उत्पत्ति होने में भी अन्यसापेक्ष नहीं रहता, क्योंकि उस की स्थिरता-स्थिति स्वयं ही उत्पत्तिशील होती है। ऐसे ही विनष्ट पदार्थ भी उत्पत्ति के लिये अन्यहेतुसापेक्ष नहीं होता क्योंकि विनाश भी उत्पत्तिस्वभाववाला ही होता है। उत्पत्ति आदि के जो हेतु कहे जाते हैं वे सिर्फ उत्पत्तिआदि स्वभाव के व्यञ्जकमात्र ही होते हैं। अब प्रत्यक्षादिप्रमाण से देखा जायतो स्पष्ट ही यह दिखाई देगा कि भाव मात्र पूर्वस्वभावत्याग एवं अपरस्वभावप्राप्ति स्वरूप परिणाम को आत्मसात करता हआ अवस्थित रहता है। ____ बौद्ध ने जो ऐसी कल्पना की है कि – शब्द, बीजली और प्रदीप आदि प्रत्येक पदार्थ निरन्वयविनाशी होते हैं – वह संगत नहीं होती, क्योंकि प्रारम्भ में जिस की स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है उस का यह स्वभाव अन्तिमक्षण तक अतिक्रान्त नहीं होता। कोई भी भाव अपने स्वभाव का सर्वथा परित्याग कर दे यह तो सम्भव नहीं है, अन्यथा पहले से ही उस का त्याग क्यों नहीं कर देता ? जब बौद्धवादी यह मानता है कि अन्तिम क्षण में वस्तुमात्र का विनाश दिखता है अतः प्रतिक्षण वस्तु विनाशी ही होने चाहिये - तो ऐसा भी क्यों नहीं मानता कि प्रारम्भ में उत्पत्तिक्षण में वस्तुमात्र की स्थिति दिखती है अत एव अन्तसमय तक वह स्थितिशील होती है ?!
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