Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 422
________________ पञ्चमः खण्डः का० ६९ स्थूलैकघटादिप्रतिभासवद्वा । ग्राह्य ग्राहकाकारविविक्तसंवित्प्रकल्पनेऽध्यक्षधियोऽपि विवक्षिताकारविवेकानुपलब्धेरध्यक्षेतरस्वभावाभ्यां विरोधस्वरूपाऽसिद्धावन्यत्रापि कः प्रद्वेषः ? तथाहि शक्यमन्यत्राप्येवमभिधातुम् – एकमेव पार्थिवद्रव्यं लोचनादिसामग्रीविशेषात् वर्णादिप्रतिपत्तिभेदेऽपि भिन्नमिव प्रतिभाति प्रत्यासन्नेतररूपताव्यवस्थितैकविषयवत् । न हि स्पष्टाऽस्पष्टनिर्भासभेदेऽपि तदेकत्वक्षितिस्तत्र, तद्वदिहापि रूपादिप्रतिभासभेदेऽपि एकत्वं किं न स्यात् प्रतीतेरविशेषात् । एवं च स्याद्वादिनोऽग्नेरप्यनुष्णत्वप्रसक्तिरिति असंगतमभिधानम् यतस्तत्रापि 'स्याद् उष्णोऽग्निः' इति स्पर्शविशेषेणोष्णस्य भास्वराकारेण पुनरनुष्णस्य तस्यैकस्य नानास्वभावशक्तेरबाधितप्रमाणविषयस्यैवं वचने दोषाऽऽसंगाऽ* एक अनुगत प्रतीति काल्पनिक नहीं यदि कहा जाय कि ‘एक अनुगत स्वर्णद्रव्य की प्रतीति का मूल है सादृश्य । सर्व वस्तु क्षणिक होने पर भी उत्तरक्षण में पूर्वक्षण का सादृश्य रहने से एकत्व की प्रतारणा हो जाती है, अत एव एकत्व के अध्यवसाय की कल्पना कर ली जाती है । ' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा कहने से पहले क्षणिकता की सिद्धि होनी चाहिये, क्षणिकता सिद्ध करने के लिये पूर्वोत्तरक्षणवर्ती वस्तु में भेद सिद्ध होना चाहिये, किन्तु यहाँ जो एकान्तभेदसाधक प्रमाण का उपन्यास किया जाता है उस का कई बार निरसन हो चुका है। यह ध्यातव्य है कि कुछ मात्रा में एक ही वस्तु में स्वभाव-भेद हो सकता है किन्तु उस से तादात्म्यभाव को कोई हानि नहीं हो जाती। एक ही संवेदन ग्राह्याकार और ग्राहकाकार उभय से संश्लिष्ट होता है । तथा एक एक पृथक् पृथक् परमाणुओं में अनेकत्व एवं सूक्ष्मता होने पर भी उन के समुदाय में एकत्व एवं स्थूलत्व का प्रतिभास होता है। यहाँ कथंचित् एकत्व - अनेकत्व, सूक्ष्मत्व-स्थूलत्व, ग्राह्यत्व - ग्राहकत्व स्वभावों में भेद होने पर भी उन के तादात्म्यभाव को हानि नहीं है। यदि कहा जाय संवेदन और उस के ग्राह्याकार अथवा ग्राहकाकार में भेद होता है, अतः आकारों में भेद होने पर भी संवेदन एक रह सकता है ऐसी कल्पना ठीक नहीं है, प्रत्यक्षबुद्धि भी एक विशिष्ट आकार से पृथक् स्वरूप में उलपब्ध नहीं होती । अतः उस में प्रत्यक्षस्वभाव तो मानना ही होगा, साथ साथ दूसरे लोगों को वह परोक्ष होने से उस में परोक्षस्वभाव भी स्वीकार करना होगा । इस प्रकार दो स्वभाव मानने में जब कोई विरोध की बदबू नहीं आती तो फिर अक्षणिक स्थिर पदार्थ में ही क्यों द्वेष रखते हैं ? देखिये स्थिर भाव के लिये भी कह सकते हैं कि घटादि पार्थिव द्रव्य एक होते हुए भी नेत्रादि भिन्न भिन्न सामग्री के कारण वर्ण - रसादि प्रतीतियों का भेद होते हुए भी श्वेतमधुरादिरूप से भिन्न प्रतीत होता है, जैसे एक ही विषय के लिये दूर हो तब और नजदिक हो तब भिन्न भिन्न प्रतीति होती है। नजदिक होने पर 'स्पष्ट' और दूर होने पर 'अस्पष्ट' ऐसे भिन्न भिन्न प्रतिभास होते हैं फिर भी उस वस्तु के एकत्व को कोई हानि नहीं होती । तो ऐसे ही रूप - रसादि प्रतिभासभेद एवं पूर्वक्षण- - उत्तरक्षण में प्रतिभासभेद के होते हुए भी उस में एकत्व क्यों नहीं हो सकता ? जब कि स्वभावभेद की प्रतीति तो दोनों स्थल में समान है। - Jain Educationa International * अग्नि को अनुष्ण मानने में स्यादवादी को संकट नहीं यदि स्याद्वादी एक वस्तु में स्वभावभेद का स्वीकार करेगा और वस्तु को सद्-असद् अनेकस्वभाव मानेगा तो अग्नि को भी अनुष्ण मानने का संकट खडा होगा – ऐसा तर्क असंगत है, क्योंकि 'स्यात् अग्नि उष्ण है' इस से हमें यही कहना है कि स्पर्शविशेष के दृष्टिकोण से अग्नि उष्ण है, किन्तु भास्वराकार है इतने मात्र से उष्ण नहीं है (अर्थात् अनुष्ण है ।) इस प्रकार एक ही अग्नि में पृथक् पृथक् अनेक स्वभावशक्ति - ३९७ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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