Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 05
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 424
________________ पञ्चमः खण्डः - का० ६९ ३९९ ___न च विद्युत्प्रदीपादेस्तैजसरूपपरित्यागात् तामसरूपस्वीकरणे किञ्चिद् विरुद्धं भवेत्। न च स्वभावभेदस्तदेकत्वविघातकृत्, ग्राह्य-ग्राहकाकारसंवेदनवत् वेद्यवेदकाकारविवेकपरोक्षाऽपरोक्षसंवित्तिवद्वा । यथा च ध्वंसहेतोस्तदतद(त्) करणविरोधात् अकिञ्चित्करत्वम् तथा स्थित्युत्पादहेत्वोर्विशरारुधर्मणः स्थास्नुताकरणाभावात् स्वत एव स्थितिस्वभावस्य स्थितिहेतोरानर्थक्यात् । अथ स्थितिहेतुरपातं करोतीत्युच्यते तर्हि 'पातं न करोति' इति प्रसक्तम् एवं चाकिञ्चित्करत्वमेव तस्य । यदि वाऽर्थान्तरं ततोऽपातः तर्हि तस्य करणे विनश्वरस्वभावः किं न विनश्येत् ? अथाऽसौ स्थास्नुः तथापि स्थितिहेतोरानर्थक्यम् स्वत एव तस्य स्थितेः। तथा उत्पत्तिहेतुरपि यदि भावं करोति तदा तस्याऽकिञ्चित्करत्वमेव भावस्य स्वयमेव भावरूपत्वात् । अथाभावं भावरूपतां नयति तर्हि नाशहेतुरपि भावमभावीकरोतीति कथमकिञ्चित्करः स्यात् ? न हि अभावस्य भावीकरणे भावस्य वाऽभावीकरणे कश्चिद् विशेषः सम्भवी। अत एव तेषामन्यतमस्य सहेतुकत्वमहेतुकत्वं वाऽभ्युपगच्छन् सर्वेषां तदभ्युपगन्तुमर्हत्यविशेषात् । * विद्युत् आदि निरन्वयविनाशी नहीं है * विद्युत् आदि का भी निरन्वय विनाश नहीं होता, प्रदीप-विद्युत् आदि पुद्गलद्रव्य के ही तैजस परिणाम हैं। जब वे तैजस परिणाम का त्याग करते हैं तब तामस परिणाम का अंगीकार कर लेते हैं। इस तथ्य के स्वीकार में कोई विरोध नहीं है। तैजस एवं तामस द्रव्य का परस्पर उलटा स्वभाव उन के एकत्व का विघातक नहीं है जैसे संवेदन में ग्राह्याकार और ग्राहकाकार एक दूसरे से विभिन्न होने पर भी संवेदन एक होता है, यद्वा वेद्य-वेदकाकार से मुक्त संवेदन परोक्ष-अपरोक्ष उभयाकार होने पर भी एक होता है। बौद्ध :- ध्वंस को स्वाभाविक मानने के बदले आप उसे सहेतुक मानते हैं वहाँ स्पष्ट है कि ध्वंसक माने गये दण्डादि घटादि का विनाश यानी अभाव करता है, उस पर प्रश्न है कि वह नाशशील का विनाश करेगा या अनाशशील का ? दोनों ही विकल्प में विरोध होने से ध्वंसहेतु निरर्थक है। स्याद्वादी :- ऐसे ही स्थिति और उत्पत्ति के हेतु को भी निरर्थक क्यों नहीं मानते ? जो स्वतः नाशशील है उस को स्थितिस्थापक से कोई स्थिरस्वभाव का लाभ हो नहीं सकेगा। यदि भाव स्वतः स्थितिस्वभाव है तो भी उसे स्थितिस्थापक से कोई अतिरिक्तलाभ नहीं होगा, दोनों ही विकल्प में स्थिति हेतु निरर्थक है। यदि कहा जाय – स्थिति हेतु निरर्थक नहीं है, वह वस्तु के अपात को करता है - तो भी निरर्थकता नहीं टलेगी क्योंकि अपात को करने का मतलब है ‘पात को न करना' – इस में स्थिति को क्या लाभ हुआ ? यदि 'अपात' स्थिति से अभिन्न होगा तो अपात को करने से 'स्थिति' को ही करता है यह अर्थ हुआ। यहाँ पुनः प्रश्न होगा कि यदि वह विनाशस्वभाव पदार्थ की स्थिति को करने जायेगा तो उसी वक्त विनाश ही क्यों नहीं हो जायेगा ? यदि स्वतः स्थितिस्वभाव की स्थिति करने जायेगा तो अकिंचित्कर ठहरेगा। इसी तरह उत्पत्तिहेतु भी निरर्थक ठहरेगा। दो प्रश्न होंगे, भाव की उत्पत्ति का हेतु यदि भाव को करने का दावा करता है तो वह व्यर्थ है, जो स्वयं भावस्वरूप ही है उस का पुनः क्या भावीकरण होगा ? यदि कहा जाय कि वह अभाव का भाव बनायेगा - अरे ! तब तो नाशहेतु भाव को अभाव बनायेगा फिर वह कैसे निरर्थक होगा ? अभाव का भाव बनावे या भाव का अभाव बनावे – दोनों प्रक्रिया में ऐसा कोई भेद नहीं है कि जिस से एक को हेतु माना जाय और अन्य को नहीं। अत एव यदि उत्पत्ति-स्थिति-विनाश में किसी एक को भी सहेतुक या अहेतुक मानेंगे तो तीनों को तथैव सहेतुक या अहेतुक मानना पडेगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442