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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तद्वचनं निग्रहस्थानं परस्य प्रसक्तम् । अनुपलब्धावुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य इति विशेषणोपादानं निग्रहस्थानं अदृश्यानामपि व्याधि-भूत - ग्रहादीनां कुतश्चिद् व्यावृत्तिसिद्धेः । यदि तु उपलभ्यानुपलब्धेरेवाभावसिद्धिः तदा ‘नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात्' इत्यत्र घटादेरात्मनोऽक्षणिकस्यादृश्यानुपलम्भादभावासिद्धेः 'यत् सत् तत् सर्वं क्षणिकम्' इति सामस्त्येन व्याप्त्यसिद्धितः क्षणक्षयानुमानं नानवद्यं स्यात् ।
किञ्च, देश-काल-स्वभावविप्रकृष्टभावानुपलब्धेरभावासिद्धौ 'सर्वत्र सर्वदा सर्वो धूमोऽग्निमन्तरेणानुपपत्तिमान्' इति व्याप्तेरसिद्धेर्न ततस्तत्सिद्धिः स्यात् । न चाध्यक्षानुपलम्भौ तत्कार्यकारणभावप्रसाधकावभ्युपगम्यमानौ सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्चेयतो व्यापारान् विधातुं क्षमौ। तत्पृष्ठभाविविकल्पस्य तन्निवर्त्तनसामर्थ्याभ्युपगमे सविकल्पकस्यानिष्टं प्रामाण्यं प्रसज्येतानधिगतार्थाधिगन्तृत्वादविसंवादित्वाच्च तस्य । अविकल्पकस्य तु हिंसाविरतिदानचेतसां स्वर्गादिफलनिर्वर्त्तनसामर्थ्यस्वभावसंवेदनस्येव सर्वात्मना वस्तुसंवेदनेऽपि निर्णयवशादेव प्रामाण्योपपत्तेः । अन्यथा अनुमानस्याS - का प्रदर्शन करने के बाद पक्षादिकथन को जैसे निग्रहस्थान मानते हो तो उस साधनवाक्य के समर्थन के लिये असिद्धि आदि दोष का प्रदर्शन भी निग्रहस्थान क्यों नहीं माना जाता ? ! समर्थन के बिना भी अपने आप साध्य के साधकरूप में साधन का कथन हो ही जाता है; अपने साध्य के अविनाभूत हेतु के प्रदर्शन मात्र से साध्य की सिद्धि हो जाती है, तब ' इति स्वभावहेतुः' अथवा 'इति कार्यहेतुः' अथवा 'अनुपलब्धिहेतुः ' इत्यादि हेतुभेद की कल्पना एवं उस के शब्दतः प्रदर्शन में भी बौद्ध को निग्रहस्थान प्राप्त होगा । तथा, अनुपलब्धिहेतु से अभाव की सिद्धि करते समय 'उपलब्धिलक्षण ( उपलब्धियोग्यता ) प्राप्त होने पर भी अनुपलब्ध होने से' ऐसा हेतुप्रयोग करते हैं तो उस में 'उपलब्धिलक्षणप्राप्त' ऐसा विशेषण का उपादान निरर्थक होगा, क्योंकि जिन अदृश्य व्याधि, भूत, ग्रहादि के व्यवच्छेद के आशय से उस विशेषण का प्रयोग किया जाता है वह आशय तो अन्य किसी भी ढंग से, प्रकरणादि से भी ज्ञात हो सकता है।
यह भी विचारणीय है कि यदि एकान्त से उपलब्धियोग्य की अनुपलब्धि से ही अभाव की सिद्धि मानी जाय, तो आत्मसिद्धि के लिये यह जो अनुमानप्रयोग किया जाता है की 'वह जीवंत शरीर आत्मशून्य नहीं है क्योंकि प्राणादियुक्त है' इस प्रयोग से आत्मा सिद्ध हो जाने के बाद यदि वह अक्षणिक है तो भी उस की अनुपलब्धि अदृश्यानुपलब्धि होने से घटादि में या दूसरे क्षण में उस के अभाव की सिद्धि नहीं हो सकेगी, फलतः अक्षणिक आत्मा का अभाव सिद्ध न होने से 'जो सत् है वह सब क्षणिक होता है' ऐसी व्याप्ति भी आत्मा का अन्तर्भाव कर के व्यापक रूप से सिद्ध नहीं होगी ; परिणाम यह आयेगा कि वस्तु में क्षणिकता का निर्दोष अनुमान दुर्लभ बन जायेगा ।
* योग्यानुपलब्धि से अभावसिद्धि का एकान्त अमान्य
यह भी ज्ञातव्य है यदि उपलब्धियोग्य की अनुपलब्धि से ही अभाव की सिद्धि का आग्रह करेंगे तो कुछ ऐसे भाव जो सदा के लिये देशविप्रकृष्ट या कालविप्रकृष्ट अथवा स्वभावतः विप्रकृष्ट होते हैं उन की कभी भी हमें उपलब्धि नहीं होती, अतः उन की अनुपलब्धि उपलभ्यअनुपलब्धि नहीं है, फलतः उन का भी अभाव सिद्ध नहीं हो सकेगा । ऐसी स्थिति में ऐसे धूम जो देशादिविप्रकृष्ट ही होते हैं उन का भी अग्नि के अभाव में अभाव सिद्ध न होने से यह व्याप्ति ही सिद्ध नहीं हो सकेगी किसी भी क्षेत्र या काल में, धूम कभी भी अग्नि के विना विद्यमान नहीं होता। नतीजतन, धूम हेतु से अग्नि भी सिद्ध नहीं होगा ।
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