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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
वेगस्य पश्चादन्यथात्वम्, अन्यथोत्पत्तिकारणाभावात् तत्समवायिकारणस्येष्वादेः सर्वत्राऽविशिष्टत्वात् । न च कर्माख्यं कारणं पश्वाद्विशिष्यत इति वक्तव्यम् तस्यापि तुल्यपर्यनुयोगत्वात् । अन्यत्वेऽपिच प्रतिक्षणं कर्मणो वेगस्य प्राक्तनस्यैवावस्थानाद् विनाशकारणाभावात् शरस्यापात एव स्यात् । न च वायुसंयोगस्तस्य विनाशकारणम् प्रथममेव तत्संयोगाद् वेगविनाशादिषोः पातप्रसङ्गात्, सर्वत्र वायोरविशेषेण तत्संयोगस्याऽप्यविशेषात् । न च प्रभूताकाशदेशसंयोगोत्पादनात् संस्कारप्रक्षयादिषोः पातः, संस्कारस्यैकस्वभावत्वेनावस्थितस्य प्रागिव पश्चादपि प्रक्षयानुपपत्तेः । न चाकाशदेशाः परेणाभ्युपगम्यन्ते येन तत्संयोगानां भूयस्त्वं संस्कारक्षयहेतुत्वं वा युक्तियुक्तं भवेत् । कल्पनाशिल्पिघटितानां तु आकाशदेशानां संयोगभेदकत्वमनुपपन्नम् तदायत्तभेदानां च संयोगानां संस्कारक्षयहेतुत्वं दूरोत्सारितमेव, इषोस्तु पातोऽन्यथासिद्ध इत्यलमतिप्रपञ्चेन ।
स्मृत्यादिकार्यात् तु सामान्येन यदि भावनामात्रं साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, पूर्वानुभवाऽऽहितकहीं भी गिरने ही नहीं देगा और अन्य अग्रिम देश तक पहुँचाता ही रहेगा, रुकेगा नहीं । 'कालान्तर में वेग दुर्बल हो जाता है' ऐसा कहना अयुक्त है क्योंकि वहाँ दुर्बल वेग का उत्पादक कोई कारण ही नहीं है । पहले जो उस का समवायी कारण बाण है वह तो पूर्व-पश्चात् काल में एक-सा ही है । यदि कहें कि तो बाण में क्रिया तीव्र होती है लेकिन पश्चात् मन्द हो जाती है तो यहाँ भी वेग की तरह ही प्रश्न है मन्द क्रिया का उत्पादक कारण कौन है ? समवायी कारण तो एक-सा ही है । कदाचित् क्रिया को प्रतिक्षण भिन्न भिन्न मानी जाय तो भी उस का जनक वेगरूप कारण तदवस्थ होने से पूर्व-पश्चात् उत्पन्न होने वाली क्रिया में कोई फर्क पडने वाला है नहीं और वेगरूप जनक का कोई नाशकहेतु न होने से बाण का पतन सम्भवबाह्य हो जायेगा । वायुसंयोग यदि उस का विनाश कारण माना जाय तब तो धनुष्य से छूटते समय ही, वायुसंयोग से वेग का नाश हो जाने पर पहले ही बाण का पतन हो जायेगा । वायु तो सर्वत्र फैला हुआ है, अतः वायुसंयोग तो सर्वत्र बाण में सुलभ है ।
यदि यह कहा जाय तीर ज्यों ज्यों आगे बढता है त्यों त्यों बहुसंख्यक आकाशदेश के साथ संयोगों का उत्पादन करते करते संस्कार (वेग) क्षीण हो जाता है, नतीजतन बाण का पतन होता है। तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संस्कार का कोई एक ही अविरुद्ध स्वभाव हो सकता है, अतः प्रथम क्षण में वह यदि अवस्थित यानी अविनश्वरस्वभाव है तो कालान्तर में उस का वैसा ही स्वभाव रहने से वह कैसे क्षीण होगा ? तथा, आप तो आकाश को निरवयव मानते हैं तब बहुसंख्यक आकाशदेश के संयोगों की प्रचुरता और उस में संस्कारक्षयकारणता की बात कैसे युक्तिसंगत हो सकती है। 'आकाश के देश' यह व्यवहार ही आप नहीं कर सकते । यदि 'कल्पना' शिल्पी से रचित यानी काल्पनिक आकाशदेशों को मंजूर कर ले तो भी कल्पित देश से संयोग की भिन्नता मानना उचित नहीं है, फिर अनेक देशाधीन प्रचुर संयोगों में संस्कारक्षय की हेतुता की तो बात ही कहाँ पहले जो कहा था कि प्रतिक्षण पूर्वपूर्व बाणक्षण से निकटवर्ती क्षेत्र में नये नये बाणक्षण उत्पन्न होते रहते हैं इस पक्ष में वेग की कल्पना के विना भी तथा तथा नूतनोत्पत्ति के कारण बाण का पतन सिद्ध हो जाता है । अतः वेग के निरसन के लिये ज्यादा बोलने की जरूर नहीं रहती ।
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* भावना संस्कार के साधक अनुमान की समीक्षा
स्मृति आदि कार्यों के सहारे अगर आप सामान्यतः भावना को सिद्ध करना चाहते हैं तब तो सिद्धसाधन
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